Saturday 8 September 2012

तुम्हारी सोच का एक टुकड़ा

तुम्हारी सोच का एक टुकड़ा

आज भी यहाँ पड़ा हुआ है

अब जब कि तुम नहीं हो

मैं क्यूँ तुम्हारी पसंद की चादर

बिछाती हूँ

क्यूँ गुलदस्ते में बस मोगरा ही

लगाती हूँ

तुम्हारा चहेता गाना सुनने को

दिल क्यूँ मचलता है

तुम्हारे कमीज़ का बटन टांकने से

मेरा दिल क्यूँ बहलता है

तुम्हारी किसी बात को याद कर

बरबस हंस देती हूँ

तुम्हारा दिल ना दुखे कहीं

सो कई गम खुद सह लेती हूँ

तुम नहीं हो फिर भी

क्यूँ मेरे दिल को

तुम्हारा इंतज़ार रहता है

तुम नहीं आओगे जानती हूँ

फिर भी दिल तुमसे मिलने को

क्यूँ बेकरार रहता है

शायद वो तुम्हारी सोच का टुकड़ा

जो आज भी यहाँ पड़ा है

वो तुम्हारी यादों को

धूमिल पड़ने नहीं देगा

चाह कर भी तुम्हारी किसी बात को

मुझे भूलने नहीं देगा 

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