Wednesday 28 November 2012

तू और तेरा श्रृंगार

तेरा सिन्दूर

दमके बदस्तूर

मन मेरा हरसाये


तेरा टीका

सूरज सरीखा

उजियारा फैलाये


तेरी बिंदिया

चुराये निंदिया

मन को मेरे भाये


आँखों का काजल

बन कर बादल

मन पर मेरे छाये


तेरा नथ

जीवन रथ

यूँ ही चलता जाये


होठ की लाली

मद मतवाली

होश मेरे उड़ाये


कान का झुमका

जब भी ठुमका

मन मेरा मुस्काये


गले का हार

करे मनुहार

पास मुझे बुलाये


हाथ का कंगना

झूमे अंगना

मन झूम झूम जाये


तेरी मुन्दरी

ओ सुन्दरी

मैंने ही पहनाये


पहन के जोड़ा

थोड़ा थोड़ा

तू क्यूँ शरमाये


तेरी कमर धनी

तू जब पहनी

कमर तेरी लचकाये


तेरी पायल

कर दे घायल

जब तू उसे छमकाये


तेरा बिछुआ

मेरा मितवा

साथ मेरा निभाये


हाथों की हिना

मेरे बिना

रंग नहीं चढ़ाये


खुशबू तेरे तन की

सुने मेरे मन की

मन को मेरे रिझाये






















रिश्तों की अहमियत

जो

रिश्तों की अहमियत

नहीं समझते हैं

और

रिश्तों को

अपने अपने अहम् के

तराजू पर तौलते हैं

रिश्ते

उनसे कभी नहीं सम्हलते हैं

रिश्ते तो

फुल से नाजुक होते हैं

निभे अगर मन से तो

फुल से खिलते हैं

उन्मुक्त रहें अगर तो

तितलियों से मचलते हैं

पर उम्मीदों के काँटों से

अक्सर ये रिश्ते

घायल होते हैं

ये रिश्ते तो

प्यार के

कायल होते हैं

सींचो इन्हें

प्यार से अगर

तो इनमें

बस प्यार ही प्यार

फलते हैं

ये रिश्ते ना हों तो

हम इनकी आग में जलते हैं

फिर

रिश्तों की अहमियत

हम क्यूँ नहीं समझते हैं

इन रिश्तों के दम पर ही तो

हम सब

अपनी जिंदगी जीते हैं 

Tuesday 27 November 2012

विरासत

बुजुर्गों से अपने

पाई है मैंने

विरासत में

कई अमूल्य सौगातें

कुछ उलझे हुए सवाल

कुछ सुलझी हुई बातें

कुछ कठिनाइयों से ताल मेल

कुछ समाधान से मुलाकातें

कुछ जेठ से तपते दिन

कुछ शरद सी शीतल रातें

कुछ धैर्य में लिपटे पल

कुछ अनजानी आघातें

कुछ दर्द भरी घड़ियाँ

कुछ खुशियों की बरसातें

कुछ मीठे मीठे सपने

कुछ नर्म नर्म जज़बातें

कहाँ जी पाते हम यह जिन्दगी

जो न होतीं ये सौगातें

संजोया है इनको

मन के आँगन में

लगा के बिरवा इनका

सम्हाल कर तिनका तिनका

कि

फले फूले ये वहाँ

तब तक

सौंप न दूं ये विरासत

अपनी अगली पीढ़ी को

जब तक


Monday 26 November 2012

संस्कारों की धरोहर

सम्हाल रहा हूँ

अपने संस्कारों की धरोहर

अपने काँधों पर

कि

आने वाली पीढ़ी को

सौंप सकूं

यह धरोहर

उन्हें अपने काँधे पर

बिठा कर

क्यूंकि हमने भी

पाया था इसे

पिछली पीढ़ी के काँधे पर

बैठ कर

जब

कुछ दृष्टिगोचर नहीं होता था

खुद के पैरों पर खड़े खड़े

उन काँधों पर बैठते ही

सब कुछ

नज़र आने लगता था

भ्रम और वास्तविकता का फर्क

सही और गलत का अंतर

सत्य और असत्य का भेद

बिना किसी संशय के

आत्मसात हो

आँखों के रास्ते

दिल और दिमाग पर

आधिपत्य जमाते ये संस्कार

कब आकर

इन काँधों पर सज गए

पता ही नहीं चला

अब बारी है हमारी

अगली पीढ़ी को

इन काँधों पर बिठा कर

उन्हें

संस्कारों की धरोहर

सौंपने की

कि फिर

उनके काँधों से

आने वाली पीढ़ियों को

ऐसे ही ये संस्कार

हस्तगत होते रहें

और

हर पीढ़ी


भ्रम और वास्तविकता का फर्क

सही और गलत का अंतर

सत्य और असत्य का भेद

बिना किसी संशय के

आत्मसात कर सके

पिछली पीढ़ी के काँधों पर

बैठ कर












Sunday 25 November 2012

समय चक्र

जिन हाथों की उँगलियाँ

पकड़ कर

हम

अपनी राह

तलाशते थे कभी

आज

वही हाथ

अपनी उँगलियाँ

मेरी तरफ बढ़ा रही हैं

अपनी राह तलाशने को

समय के चक्र में

उँगलियों की भूमिका

कब बदल गई

पता ही नहीं चला

अभी तक

उन्हीं उँगलियों के सहारे

मैं अपनी राहें तलाशता था

आज

जब उस हाथ ने

अपनी उँगलियाँ

मेरी तरफ बढ़ाईं

तो यह अहसास हुआ

कि

जिन उँगलियों को पकड़ कर

मेरा बचपन बड़ा हुआ

आज

उन उँगलियों को

उम्र की इस दहलीज़ पर

पहुँच कर

दरकार है

मेरी विश्वस्त उँगलियों की

अपनी राह तलाशने के लिए

हाथ वही हैं

उँगलियाँ भी वही

विश्वास भी वही

सहारे की मजबूती भी वही

बस आज

उन उँगलियों की

भूमिका बदल गई है


Sunday 18 November 2012

गणित रिश्तों का

हतप्रभ हूँ मैं यह देख कर 

इंसानी रिश्तों में 

गणित भी कितना हावी है 

वैसे होना तो वही है 

जो अवश्यम्भावी है 

पर फिर भी 

हर रिश्ते में हम 

हर पल 

सुख और दुःख 

ख़ुशी और दर्द 

जोड़ते और घटाते रहते हैं 

कुछ उम्मीदें 

कुछ आशायें 

कुछ सपने 

प्यार के गुणक से 

हर रिश्ते में बढ़ाते रहते हैं 

और जब 

खुद पर बोझ बने 

रिश्तों के बढ़ते गुणक 

बड़ी चालाकी से 

अपनी लाचारगी से भाग देकर 

भागफल में बची खुशियाँ 

अपने हिस्से कर 

अवशेष में बची जिम्मेदारियों को 

दुसरे के हिस्से फेंक आते हैं 

सिर्फ जोड़ घटाव गुना भाग ही नहीं 

रिश्तों के दल दल में 

स्थैतिकी और गतिकी भी 

काफी गहरे तक पैठे हैं 

रिश्तों के इन दाँव पेंच में 

ये भी कुंडली मार कर बैठे हैं 

जब रिश्तों की गरमाहट में 

शक़ का सर्द झोंका 

रिश्तों को छू कर जाता है 

रिश्ते बर्फ से जम जाते हैं 

सब कुछ स्थिर सा हो जाता है 

भाव प्रेम चाहत फिकर 

सब स्थैतिकी के हर सिद्धांत को 

जैसे आत्मसात कर लेते हैं 

स्थिर रह कर अपनी जड़ता से 

मन की हर भावना को जड़ कर देते हैं 

वहीँ जब रिश्तों की गरमाहट में 

प्यार की उष्मा 

दुलार की थपकी से 

फिकर की ओट में 

रिश्तों को 

चाहत की नर्म आंच पर सेकती है 

तो रिश्तों में 

जाड़े की सर्द ठंढक में भी 

गुनगुनी धुप सी गरमाहट भर जाती है 

और उस गर्मी से 

सर्द पड़े रिश्तों के पौधों पर 

प्यार की कलियाँ खिल जाती हैं 

रिश्तों की इस गरमाहट से 

मन खुशियों संग नाचने लगता है 

सपने आकाश चूमने लगती हैं 

अरमानों की बारात सजने लगती हैं 

हर तरफ 

सिर्फ गति ही गति दृष्टिगोचर होती है 

और 

रिश्ते की गतिकी 

मन के हर तार को झिंझोड़ कर 

गतिमान कर देती है 

जब 

हमारे सोच की संकीर्णता 

या फिर 

वृहतता 

तय करती है 

रिश्तों के गणित के समीकरण 

या फिर 

उनकी स्थैतिकी या गतिकी 

तो क्यूँ नहीं 

हम अपनी सोच में 

वो गरमाहट लाते हैं कि 

रिश्तों में 

कुछ घटाने की 

या भाग देने की 

या फिर 

उन्हें जड़ की तरह स्थिर करने की 

कभी नौबत ही न आये 

रिश्तों के इस सफ़र में 

चलते चलते 

कभी कहीं कोई काँटा 

चुभ भी जाए 

तो उस से रिसते घाव पर 

प्यार का मरहम लगा कर 

विश्वास की पट्टी बाँध कर देखो 

तो शायद कभी नासूर न बने 

और फिर 

रिश्तों की गणित में 

सिर्फ 

खुशियों के जोड़ हों 

प्यार के बढ़ते गुणक हों 

विश्वास की गति हो 

और रिश्तों में 

हर तरफ से बस 

वृद्धि ही वृद्धि हो 












 


Monday 12 November 2012

हर्षित मन



हर मन आज यहाँ हर्षित है

सब का रोम रोम पुलकित है

सबकी आशायें ललकित हैं

खुशियाँ आज जो अतुलित हैं

दुःख हर ले उसके जो दुखित है

सब प्रेम भाव से परिचित हैं

सारा लोक आज उल्लसित है

सब देख दृश्य यह चकित हैं

कुछ नहीं यहाँ जो अनुचित है






Saturday 10 November 2012

मिलन की बेला

दिल तड़पा है मेरा सदियों

इस एक घड़ी के आने को

जब आई है मिलन की बेला

मुझको खुद में खो जाने दो

घड़ी मिलन की ढल ना जाए

सोये अहसासों को जगाने दो

अपने अधरों के दो प्यालों से

मधुरस आज छलक जाने दो

मादक नैनों की मदिरा पीकर

मुझको आज बहक जाने दो

आओ आलिंगन में तुमको भर लूं

अतृप्त मन की प्यास बुझाने दो

दिल की मुझको परवाह नहीं है

धडकनों को बिखर जाने दो

इन साँसों की खुशबू में खोकर

अब होश मेरे उड़ जाने दो

मन उलझा है तन उलझा है

साँसों को भी उलझाने दो

अब दूरी कोई सही ना जाए

अपनी हस्ती पिघल जाने दो

आज मिलन की इस रैना में

अब जो होता है हो जाने दो

Friday 9 November 2012

वह चेहरा

मैं

अतीत की परछाइयों में

उसका चेहरा ढूँढता हूँ

जब कभी

उसकी मुस्कराहट

नाच जाती है

मेरी नज़रों के सामने

हुस्न और इश्क की दुनिया से दूर

चमकता था उसकी आँखों में नूर

चेहरे को उसके जैसे तराशा हो किसी ने

बड़ी फुरसत में बैठ कर

वह चाँद का टुकड़ा था

या

फिर आसमां से आई थी

कोई अप्सरा उतर कर

उसके चेहरे में ढूँढते थे सब

हुस्न मगर

हुस्न तो छुपा बैठा था

उसके दिल के भीतर

वो पलकें उठाती तो

सवेरा होता

सांझ उसके पलकों के

झुकने से आती थी

रात के दामन पर

जुगनुओं सा

चमकता था

उसका नूरानी चेहरा

रात भी मद में डूब जाती थी

पहन कर उसके

हुस्न का सेहरा

वह इंसान थी या

चाँद का अक्श

किसी झील में ठहरा

मैं आज भी यही सोचता हूँ

जब भी उसको याद करता हूँ

कि वह चेहरा था

या फिर

मेरी यादों

कोई सिलसिला



तुम

मेरा अखंड अभिमान हो तुम

मेरे मन का अरमान हो तुम

मेरे सपनों की उड़ान हो तुम

मेरे अरुण का आसमान हो तुम


मेरे हृदय का सम्मान हो तुम

मेरे भूत का वर्तमान हो तुम

मेरे प्रणय विनय का मान हो तुम

मेरे अनंत प्रेम का परिमान हो तुम


मेरे जीवन का अधिमान हो तुम

मेरी साँसों की पहचान हो तुम

मेरे शरीर का प्राण हो तुम

मेरे अस्तित्व का प्रमाण हो तुम


मेरे लिए ईश्वर का वरदान हो तुम

निश्छल निःस्वार्थ प्रेम का प्रतिमान हो तुम

मेरे हर पल की मुस्कान हो तुम

निज गुण से कितनी अनजान हो तुम






Thursday 8 November 2012

तेरा अल्हड़ यौवन

जब कभी मेरे दोनों नयन

संग मिले मेरा आकुल मन

दोनों मिल कर कोई जतन

अपलक निहारे तेरा यौवन


सजन अल्हड़ चंचल चितवन

तुझे देख उद्वेलित हो मेरा मन

मद रस पी पी तेरा यौवन

भीग चांदनी बने चंद्र बदन


तेरे यौवन में है कितना तपन

तुझे छू कर बहे जो सर्द पवन

लगे कण कण में उसके अगन

उसके छूते जले मेरा तन मन


कितना मादक है तेरा यौवन

खुशबू फैले तेरी चमन चमन

पाकर मधुकर तुझसे अचमन

झूमे मदमस्त मधुबन मधुबन


रूप ऐसा धरा तेरा यौवन

लगे तेरी काया कंचन कंचन

तू रहे अपनी धुन में मगन

तुझे देख खोंये सब चैन अमन


देख तेरा यह अल्हड़ यौवन

बने मेरे कितने ही दुश्मन

जो देखे तुझे भर भर नयन

उन्हें देख जले मेरा तन मन



अब नहीं होता मुझसे दमन

मेरे अरमानों का मेरे सजन

कुछ कर तू अब ऐसा जतन

हो तृप्त मेरा उद्वेलित मन





Wednesday 7 November 2012

कौन कहता है मैं अकेला हूँ

मेरे इक दर्द पर

कल सैकड़ों आंसू

बह निकले

कौन कहता है यहाँ

मैं अकेला हूँ

मेरे दर्द से रोने वाले

सब मेरे ही अपने निकले

कौन कहता है यहाँ

मैं अकेला हूँ

मैं सोचता था

सब सुख के  साथी हैं

पर दुःख में भी

सब साथ निकले

कौन कहता है यहाँ

मैं अकेला हूँ

ज़िन्दगी की राह पर

आये गए कितने मेले

पर जो अपने थे

सब अपने निकले

कौन कहता है यहाँ

मैं अकेला हूँ

कोई गम नहीं मुझे ज़माने का

कोई याद करे चाहे भूले

जो साथ चले

सब अपने निकले

कौन कहता है यहाँ

मैं अकेला हूँ



Monday 5 November 2012

पिया मिलन की घड़ी आई


लेकर भोर की अरुणाई

खिले गोरी की तरुणाई

ज्यों पवन चले पुरवाई

अंग अंग से ले अंगड़ाई


रात गए इस अंगनाई

रात की रानी खिल आई

देख गोरी की अंगड़ाई

मंद मंद वह मुस्काई


जब पिया जी की आहट आई

आहट सुन गोरी घबराई

बुत बनी खड़ी वह शरमाई

मुख मंडल पर लाली छाई


जब पिया मिलन की घड़ी आई

चाँद तारे सारे बने तमाशाई

जब इनके छुपने की बारी आई

तब दिखी इन सब की ढिठाई


गोरी की तो जैसे शामत आई

क्यूँ इन्हें बताया सोच पछताई

चाँद तारे सब निकले हरजाई

कहीं पिया ना रूठें सोच घबराई


अब की जब मिलन की रुत आई

गोरी ने सब से यह बात छुपाई

अपने प्यार को मन में दबाई

आकर अंक में पिया के समाई














Saturday 3 November 2012

उसका निर्जल उपवास



कल था उसका निर्जल उपवास।

फिर भी मुख पर अतुलित उजास।।


मन में गर्वित हर्षित अभिलाष।
चारों ओर सजे उमंग-उल्लास।।

सुन्दर दुल्हन सी आभूषित।
सोलह शृंगार से हो सज्जित।।

स्वयं में मेरा संधान करे।
चन्द्र मुख में मेरा रूप भरे।।

असीम प्रेम नैनों में रहे।
चरण रज से मेरी अपनी माँग भरे।।

भावुक, पुलकित, लज्जित होकर।
सिमटी अंक में मेरे खुद को खोकर।।

मेरे सुख में निज सुख को पाए।
जतन करे मुझे कभी दुःख ना आये।।

मेरी आयु उसका अखंड सुहाग।
जीवन में हो बस प्रीति-भाग।।

अब बैकुंठ की मुझको चाह नहीं।
बिन प्रीति मुक्ति की राह नहीं।।

हर सम्भव सुख उस पर वारूँ।
उसकी जय में खुद को हारूँ।।


मेरे प्रेम का प्रथम स्वीकार

मेरे प्रियतम

मेरे हृदय में बसती है

तुम्हारी छवि तुम्हारा नाम

दिन का सूरज ढल

जब बने सिन्दूरी शाम

खिल उठता है हृदय मेरा

और मैं लिखता हूँ

इक चिट्ठी तुम्हारे नाम

छोड़ आता हूँ उसे

दहलीज़ पर तुम्हारी

कि कभी तो पड़ेगी

उस पर नज़र तुम्हारी

फिर खिल उठेगी

मेरी हर सिन्दूरी शाम

जब होगी तुम्हारे हाथों में

मेरी चिट्ठी तुम्हारे नाम

मेरे प्यार की खुशबू में

लिपटी हुयी

मेरी अंतस की भावों में

सिमटी हुयी

प्रेम की पहली किरणों से

सज़ कर

नव पल्लवित फूलों सी

खिल कर

जब तुम उसके

शब्दों से मिलोगी

मालूम है मुझे

तुम फूलों सी खिलोगी

क्यूंकि उस चिट्ठी के

हर इक शब्द

मैंने

फूलों से सजाये हैं

अपने दिल के भावों को

इत्र से महकाये हैं

मेरे प्रेम का है वो प्रथम

स्वीकार

मेरी चिट्ठी जो मैंने

तुम्हे लिखी है

पहली बार

मेरे प्रियतम

बताना मुझको

करती हो ना उसे

तुम भी स्वीकार ?








Friday 2 November 2012

तिमिर हटा अपने जीवन का

क्यूँ तम से जीवन के

व्यथित होता है तू

क्यूँ गम से अपने

चैन खोता है तू

क्यूँ नियति को लेखा मान

अपनी किस्मत को रोता है तू

तिमिर हटा अपने जीवन का

कण कण में प्रकाश भर ले

जो बसा मानस पटल पर

प्रेम से तू उसको वर ले


हर तरफ उजास हो जीवन में

तू हर वो जतन कर ले


आशाओं के दीप जला कर

जीवन के तम को हर ले

मन मन्दिर

पाकर 

बस इक स्पर्श तुम्हारा 

यह मन मंदिर बन जाता 

मन के अंदर 

भाव हैं जितने  

उनको बस इक स्पर्श से 

तुम्हारे 

अर्थ कितना है मिल जाता 

मन के भाव 

मन में रहते 

पर आँखों से यह 

सब कुछ कहते 

जो भी होता 

मन के अंदर 

दिखता आँखों के रस्ते 

घंटे घड़ियाल 

सब मन में बजते 

दीप के थाल 

मन में सजते 

उड़ती जो सुगन्धित 

धूप की बयार 

मन सुगन्धित हो जाता 


पाकर 

बस इक स्पर्श तुम्हारा 

यह मन मंदिर बन जाता 











जब तुम मिले थे

तुम मिले मुझे

जिंदगी के जिस मोड़ पर

जिंदगी ठहर गई

वहीँ पर

पर

वक्त चलता रहा

और

हम जीते रहे

वक्त के बहते हुए

लम्हों के साथ

अपनी ठहरी हुयी जिंदगी

हर लम्हा

इक नए रंग में

रंगा हुआ सा

नई खुशबुओं में

रचा हुआ सा

नये  उमंग

नई तरंग

नई दिशाओं में

बसा हुआ सा

नये नये सपनों से

भरा हुआ सा

नई तमन्नाओं से

जगा हुआ सा

इन लम्हों को जी कर

जी करता है

वक्त के बहते धार को

वहीँ पर रोक दूं

जहां पर जिंदगी ठहरी थी

जब तुम मिले थे

मुझे 

उनके हाथों की हिना


रात भर

उनके

हाथों की हिना

सीने पर मेरे

मीठी अगन में जलती रही

उसकी

मदभरी खुशबू

लहू संग

रगों में मेरे पिघलती रही

उस पर रंग ऐसा चढ़ा

उनके प्यार का

भोर भी आँख मलती रही