Wednesday 19 September 2012

कैसी है ये उलझन

जाने मन क्यूँ छटपटाता है

बेचैनियों के अँधेरे में

जैसे कुछ छुटता सा जाता है

आते हुए सवेरे में

इक अनजाना सा डर

मन में बैठा हुआ है

क्या है वो जो

मुझसे रूठा हुआ है

कोई उम्मीद किसी की

या भरोसा किसी का

कहीं मोहब्बत किसी की

या चाहत किसी का

कैसी है ये उलझन

क्यूँ है दुविधा में मन

साँसे भी बेचैन हैं

भरे भरे से नैन हैं

मन है कि

अँधेरे में डूबता ही जाता है

मंजिल तो दूर

रास्ता भी नज़र नहीं आता है

क्या करूँ

कहाँ जाऊं मैं

इस मन को कैसे समझाऊं मैं

अब ऐसे ही ज़िन्दगी

चलती चली जाती है

दुविधाओं में डूबती उतराती है

शायद मैं भी

अब इसके साथ

जीना सिख गया हूँ

जिंदगी से

लड़ना सिख गया हूँ





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