Wednesday 5 September 2012

ये कविता - शब्दों का जाल

शब्दों का

ये कैसा जाल बुना तुमने

मेरे मन का पंछी

जा फंसा उसमें

तुमने तो शायद

कविता लिखी थी

जाने क्यूँ मुझे उसमें

ज़िन्दगी दिखी थी

कविता की हर एक पंक्ति से

घिरती गयी मैं

शब्दों के मायाजाल में

फंसती गयी मैं

जाने क्यूँ हर शब्द

अपना सा लगा था

अपने लिए देखा जो

सपना सा लगा था

तुमने कैसे मेरे मन में

झाँक लिया था

अहसासों को कैसे तुमने मेरे

भांप लिया था

तुमसे तो मेरा कोई

नाता भी नहीं था

मेरी डगर पर कोई

आता भी नहीं था

तुम्हारी कविता के

हर शब्द में मैं हूँ

तुम्हारी हर सोच

हर जज़्बात में मैं हूँ

यूँ लगता है जैसे

तुमने सदियों से मुझे जाना है

मेरे मन को तुमने

अन्दर से पहचाना है

ए कवि ये तेरी कविता है

या मेरा आईना

शब्दों में तेरी यूँ ढली मैं

अपनी सुध ले पाई ना



2 comments:

  1. आपकी हर कविता हर किसी को अपनी सी ही लगती है :)

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  2. कविता की हर एक पंक्ति से

    घिरती गयी मैं

    शब्दों के मायाजाल में

    फंसती गयी मैं

    जाने क्यूँ हर शब्द

    अपना सा लगा था

    Wah....bahut khoob...:)

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