Saturday 29 September 2012

कुछ ख्याल.... दिल से (भाग- १२)


क्यूँ मिलन के मौसम में जुदाई की बात करती हो
जब भी हम मिले दिल खिले ये कहते क्यूँ डरती हो

हमारी हसरतों से निकल कर आजकल वो बड़े फुरसत में हैं 
सुना है नए शौक आजमा रहे हैं इस दिल को जलाने के लिए 

हमारी हसरतों से निकलते हुए देखा भी नहीं आपने 
कि रूह मेरी मेरे जिस्म से कैसे निकली जा रही थी 

अब ये रूह ना होगी तो कहाँ ये जिस्म होगा 
और जिस्म नहीं तो फिर ये दिल कहाँ होगा 

गुजर गए जाने कितने सावन अपनों और गैरों को आजमाने में 
पर कुछ भी हासिल ना हुआ इस दिल को इस बेदर्द ज़माने में 

जब से आप निकले हैं हमारे हसरतों से 
ये दिल रूह जिस्म सब हमसे खफा हैं 

मैंने अपना दिल जान जिगर सब तेरे हवाले किया था 
पर तुने इनके बदले मेरी मोहब्बत का सौदा किया था 

दिल क्या ये जान भी हम हथेली पर रख देंगे तेरे 
एक तू जो अपनी वफ़ा का हमें भरोसा दिला दे 

ये दिल नादां था तभी इसने कोई शिकवा ना किया 
नहीं तो सितम कम ना ढाए थे तुमने इश्क में सनम

हमारी वफ़ा की पाकीज़गी पर कोई इलज़ाम हम नहीं ले सकते 
कभी चीर के इस दिल को देखा होता तेरा अक्श तुझे दिखाई देता 

खामोशी भी अपनी जुबान से वही कह गई 
मेरे दिल के दर्द को ख़ामोशी से सह गई 

तुझ पर कोई इलज़ाम लगाऊँ ऐसी मेरी फितरत नहीं 
सजदे में अपने तुझे मैंने मेरा खुदा माना है सनम 

क्यूँ जान गंवाते हो तुम इस दिल के लिए 
बस अपने प्यार से नवाजो हमको 
और कोई हमें हसरत नहीं 

गले तो हम हार कर अपने दुश्मनों को भी लगाते हैं 
आप तो इस दिल के अज़ीज़ मेहमां थे 
फिर क्यूँ इस दिल पर ये तोहमत आप लगाते हैं 










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