Saturday 15 September 2012

जिंदगी की दुशवारियाँ

जिंदगी की दुशवारियाँ

चैन से दो पल जीने नहीं देतीं

कुछ पल ठहर कर

अपने सीने के ज़ख्मों को

सीना चाहूँ

ज़ालिम ज़िन्दगी

उन ज़ख्मों को सीने नहीं देती

कभी जो अपने अश्कों को

पीना चाहूँ

ये बेवफा ज़िन्दगी

उन अश्कों को पीने नहीं देती

सारे ज़ख्म यूँ ही खुले लिए

फिरता रहता हूँ

अपने अश्कों की मझधार में

अक्सर बिना पतवार के

घिरता रहता हूँ

सारे ज़ख्म यूँ ही

रिसते रहते हैं

अश्कों की धार सूख सुख कर

बहते रहते हैं

और

मेरी नाकामियों के किस्से

कहते रहते हैं

अब इन दुशवारियों के साथ ही

ज़िन्दगी जीता हूँ

समझौता समझो

या मजबूरी

अश्कों को

पानी समझ कर पीता हूँ




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