Thursday 6 September 2012

हमारा किसान

कैसी ये विडम्बना है

देश का पेट भरने वाला

भूखे पेट सोता है

सब की किस्मत संवारने वाला

खुद अपनी किस्मत को रोता है

सूखे बंज़र खेत का सीना चीरकर

उसको खून से अपने सींचता है

बैल नहीं कभी मिले अगर जो

हल कंधे से अपने खींचता है

मुट्ठी भर अनाज़ की खातिर

साल भर मेहनत करता है

रखकर गिरवी शरीर अपना

हर सांस पर ब्याज वो भरता है

फिर भी दाने दाने की खातिर

कितनी जिल्लत वो सहता है

जब धैर्य की सीमा टूटती है

उसके घर की किस्मत फूटती है

किसी कमज़ोर पल के साए में आकर

पीता है ज़हर वो सब कुछ गंवाकर

फिर मौत पर उसकी

होती है राजनीति

पर कोई यह सुध नहीं लेता

उस गरीब पर क्या क्या बीती




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