Thursday 9 August 2012

मेरी अर्धांगिनी

यादों के झरोखों से 

जब कभी मैं 

अपने अतीत में झांकता हूँ 

इस मंज़र को मैं 

अपने दिल के 

सबसे करीब पाता हूँ 

याद है मुझे 

तुम मिली थी 

जब मुझे पहली बार 

पता नहीं था मुझे 

क्या था तुम से मेरा सरोकार 

जब किसी ने यह बताया 

तुम्हारा रिश्ता मेरे लिये आया 

सच बताऊँ 

मन ही मन 

मैं अपने भाग्य पर इतराया 

फिर वो समय आया 

जब तुम्हें तुम्हारे बाबुल के आँगन से 

ब्याह कर लाया 

विदाई की घड़ी 

अपनों से मिलकर 

कितना रोयी थी तुम 

मन कितना 

व्यथित हुआ था मेरा 

उस सफर में 

जब थक हार कर 

अपना सर 

कितने विश्वास से 

मेरे काँधे पर रख कर 

सोयी थी तुम 

मन कितना 

पुलकित हुआ था मेरा 

तुम्हारे सर का टेक 

अपने काँधे पर देख 

कितनी जिम्मेदारियां 

अचानक ही 

मन में मेरे 

जन्म ले लीं थीं 

जैसे अपना सर टेकते ही 

तुमने 

उनका बीज बो दिया था 

मेरे अंतर्मन में 

और 

वो प्रस्फुटित हो कर 

अपने होने का 

भान करा रही थी मुझे

अब तक अल्हड़ आवारा मैं 

अचानक ही 

कैसे पल भर में 

अपना अल्हड़पन भूल 

एकदम से  संजीदा हो गया 

तुम्हारा मुझपर 

यूँ यकीं करना 

शायद वजह थी 

मेरे यूँ बदल जाने की 

जब तुमने 

चावल की ठेकरी को 

अपने सहमे पांव से 

दरवाज़े पर गिराया था 

यूँ लगा था जैसे 

सैकड़ों तारों का झुण्ड 

ज़मीं पर उतर आया था 

आलता की थाल में 

पांव रख कर 

लहंगे को उचका कर 

तुम ज्यों ज्यों 

चलती रही 

मेरी सारी हस्ती 

तुम्हारे पांव की छाप में 

पिघलती रही 

मैं चोरी चोरी 

तुम्हारी गोरी पिंडलियों को 

निहारता रहा 

और पता नहीं 

किन्हीं अनजाने ख्यालों से 

मन ही मन  

मुस्कुराता रहा 

उस रात 

तुम्हारा पूर्ण समर्पण 

मेरे पूरे अस्तित्व को 

अंदर तक हिला गया था 

वो बस 

तन का नहीं 

मन का नहीं 

तुम्हारे पूरे अस्तित्व का 

समर्पण था 

मंडप में पढ़े गए 

कुछ मन्त्रों से 

मेरी अर्धांगिनी बनी थी तुम 

पर 

उस रात 

तुम्हारे पूर्ण समर्पण से

मेरा पूरा अस्तित्व 

तुम में यूँ विलीन हो गया 

कि 

अब तुम्हारे बिना 

मेरा होना संभव नहीं था 

आज भी 

जब वो पल 

आँखों से होकर गुजरता है 

मेरा रोम रोम 

उन ख्यालों से सिहर उठता है 

तुम्हारे विश्वास की पराकाष्ठा 

की परिणति 

मेरी रानी 

मेरे मन मंदिर में 

तुम्हारी मूरत की 

प्रतिस्थापना से हुयी 

और मेरे प्यार की 

शुरुआत 

मेरी प्रियतमा 

तुम्हारी 

उपासना से हुयी 

वो उपासना आज भी 

अनवरत जारी है 

जन्म जन्मांतर तक

मेरी अर्धांगिनी 

मेरी हर सांस तुम्हारी है 

आज भी जब कभी 

मेरी आँखें तुमको यूँ ही 

निहारती हैं 

खुशियाँ सम्हाल नहीं पातीं 

और छलक जाती हैं 









3 comments:

  1. समर्पण कभी भी एकतरफा नहीं होता..... इसीलिए तो प्रणय मिलन कहते हैं.... बहुत सुन्दर और राग-अनुराग के अतीव गहरे भाव.. प्रेम का सुंदर विवरण....

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  2. bahut hi sundar....itni sundar ki sbad nhi mere paas ...

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  3. speechless.......kitne paq jazbaat..behad sunder...no words...aap dono ki jodi yunhi bani rahe .sadiyo tak...har janam me

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