Monday 29 October 2012

बाबू जी आप कहाँ खो गए !!

( मेरे पिता तुल्य श्वसुर जी के निधन पर दिनांक २ अगस्त २००२ की रात्रि को लिखी गई कविता आज इस ब्लॉग पर उनके आशीर्वाद स्वरुप डाल रहा हूँ। उनका निधन कैंसर से हुआ था। जब तक हम सब को पता चला तब तक वो कर्क रोग उन्हें अपनी गिरफ्त में ले चुका था। अपने अंतिम क्षण उन्होनें बहुत कष्ट में काटे।)
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बाबूजी

आप अचानक यूँ कहाँ खो गए

अभी तो आप यहीं थे

हमारे आस पास

आपकी आवाज़

कानों में अमृत घोलती थी

आपका स्पर्श

मन को चैन देता था

हमसे कौन सी भूल हुई

जो आप हम सब से रूठ गए

और

हमें ऐसी सजा दे गए

जिसका पश्चाताप

हमें ज़िन्दगी भर रहेगा

अपनी भूल सुधारने का

एक मौका

तो हमारा हक़ था

आपने वो हक़ भी

हमसे छीन लिया

और हमें

पश्चाताप की आग में

जलने के लिए छोड़ दिया

आपने एक दर्द हमसे छुपाया

और वो दर्द

हमारी पूरी ज़िन्दगी का दर्द बन गया

आप तो गहरी नींद में सो गए

हमें यह भी नहीं बताया

कि

इस दर्द को हम कैसे सहें

क्या करें

कैसे रहें

किस से कहें

कि हम दर्द में डूबे हैं

क्योंकि

अपना दुःख दर्द

तो हम आपको बताते थे

और आप

अपनी स्नेहमयी मुस्कान से

हमारे सिर को सहलाते हुए

उस दुःख को

हमारे दर्द को

जाने कैसे हर लेते थे

अब हमें इस दर्द के साथ

जीना होगा

कि

आप हमसे रूठ गए हैं

और दूर कहीं खो गए हैं

इस तरह

कि

अब आपको

हम कहीं ढूंढ भी नहीं पायेंगे

और अपना दर्द

अपने सीने में छुपाये

आपके बिना जीने को

विवश हो जायेंगे

क्योंकि

आप ही ने हमको

दीर्घायु होने का

आशीष दिया था







Sunday 28 October 2012

मेरे होने की कीमत

हर रिश्ता यहाँ

मुझसे

मेरे होने की कीमत

मांगता है

निभाने को

जितने भी दस्तूर हैं

सारे

वो सब हैं बस मेरे

सहारे

सब ख़ता पर ख़ता

किये जाएँ

तो कोई गम नहीं

मेरी नाकामियों पर

मुझे सज़ा

दिए जाएँ

तो कोई गम नहीं

हसरतों ने जब भी मेरी

करवटें बदली हैं

नज़र ज़माने की

उस पर लगी हैं

सबकी हसरतों में

मुझको

सबकी चाहों के रंग में

ढलना है

पर अगर हसरत हमने की

तो उसे सीने में ही

दफ़न करना है

चाहतों पर भी मेरे

यहाँ

सब की नज़र का

पहरा है

चाहूँ मैं कुछ दिल से अगर

क्यूँ सबको एतराज

ठहरा है

अब यहाँ सासें मेरी

घुटने लगी हैं

ऐसी ज़िन्दगी से तो

मौत ही भली है




Sunday 21 October 2012

प्रेम ग्रन्थ

प्रेम ग्रन्थ
जब भी लिखा गया
मैं प्रेमी था
और तुम प्रेयसी
वही अक्षर रहे वही शब्द
वही रचना रचती आई
सदियों सदियों से
रचना जब भी वो रची गई
वही प्रेम ग्रन्थ कहलाई
हर शब्द में प्रेम भरा हुआ था
पन्ने पन्ने में नेह धरा हुआ था
तब उस प्रेम ग्रन्थ को पढ़ने वाले
जान सके प्रेम आखिर है क्या बला 

कुछ ख्याल.... दिल से (भाग- १७)




वो क़त्ल करने के रोज़ नए तरीके इज़ाद करते हैं
हम सर झुकाए उनके तरीकों का इंतज़ार करते हैं


मोहब्बतों के शे'र वो अक्सर सुनाते हैं
'गर इश्क है उनको तो क्यूँकर छुपाते हैं


यूँ मुस्कुरा कर वो देखते हैं जब जहां को
उनसे सैकड़ों निगाहें कहती हैं मैं यहाँ हूँ


वो बनते हैं नादान जान कर सब कुछ
पूछते हैं हमसे उनकी खासियत क्या है


आप यूँ ज़ख्म-ए-दिल हमसे कब तक छुपाते रहेंगे
हम मोहब्बत से अपने आपके ज़ख्मों को मिटाते रहेंगे


वो कहते हैं अक्सर हमसे उनको हमारा इंतज़ार रहता है 
इश्क नहीं उनको अगर तो क्यूँ दिल उनका बेकरार रहता है


वो कहते हैं हम उनकी कदर नहीं करते
अब कैसे बताये उन्हें हम उन्हीं पर मरते


हमने कहा आप अजीजा हैं हमारी
वो हंस कर इसे मजाक समझ बैठे


तुम्हें अपने दिल के अंदर यूँ बिठा कर रखूंगा
इस जहां को कभी फिर याद ना कर पाओगे 


बरसों से देते रहे हम अपने सबर का इम्तहान
जाने ये इश्क कहाँ से आ गया हमारे दरम्यान



Saturday 20 October 2012

दिल से ...

पाने की खुशी
खोने का डर
क्यूँ जीवन भर ?


जाने क्यूँ लगता है 
अपना कोई रूठा है 
जिंदगी जैसे 
सपना कोई झूठा है 


जी चाहे
हर घड़ी
तुझे निहारूं
तुझे दुलारुं
जीवन अपना
तुझ पर वारूँ 


भोर का सूरज
लाली उसकी
सिन्दूर तुम्हारा


तुम सावन
नेह बरसा
भींगे हम 


यूँ तेरा आना
नज़रें झुकाना
और दिल पे छा जाना


तपती धूप
तुम्हारा साया
मन हरसाया


तुम्हारी मुस्कान
खुशियों की बरकत
मैं धनवान 


तेरा चेहरा
तेरी मुस्कराहट
मेरी खुशियों की आहट 


ये बंधन 
तुझसे नेह का है 
मेरा 
तुझसे स्नेह का है 


मृग तृष्णा

मृग तृष्णा

तपते जलते रेगिस्तानों में

प्यासे मृग के

नयनों को भरमाती

मन में आस जगाती

पास आते ही

दूर चली जाती

मृग की व्याकुलता

और बढ़ाती

पर कभी भी ना

पास आती

अंततः

प्यासे मृग के

प्राण हर जाती

और यह

मृग तृष्णा कहलाती 

Friday 19 October 2012

प्रेम

प्रेम

शब्द एक

भाव अनेक

हर भाव का अलग अलग धरातल

कहीं चढ़ाव कहीं उतार

कहीं पर समतल

किन भावों में बांधें इसको

किन भावों को छोड़ें

सबका अपना अपना प्रेम है

सब अपने अपने भावों को जोड़ें


कभी सोचा ऐसा क्यूँ किया

दर्द तुमने भी दिया

दर्द हमने भी दिया

दिल दोनों का दुखा

कभी सोचा ऐसा क्यूँ किया ?

प्यार तुम भी कर सकते थे

प्यार हम भी कर सकते थे

पर प्यार दोनों ने नहीं किया

कभी सोचा ऐसा क्यूँ किया ?

सोच अलग थी तुम्हारी

सोच अलग थी हमारी

हमने क्यूँ नहीं सोचा

कभी सोचा ऐसा क्यूँ किया ?

राह अलग मंजिल अलग तुम्हारी

राह अलग मंजिल अलग हमारी

फिर साथ क्यूँ चले भला

कभी सोचा ऐसा क्यूँ किया ?

ज़िन्दगी भर का गम तुम्हें मिला

ज़िन्दगी भर का गम हमें मिला

फिर क्यूँ चला ये सिलसिला

कभी सोचा ऐसा क्यूँ किया ?

Thursday 18 October 2012

गुमनामियों के अँधेरे

जी चाहता है

गुमनामियों के अँधेरे में

खो जाऊं कहीं

इस नाम से

अब दर्द होने लगा है

ज़िन्दगी के हर मोड़ पर

खड़े हैं

कितने जाने पहचाने चेहरे

तकते हुए मुझे

अपनी उम्मीदों की नज़र से

उनकी उम्मीदों से

मेरा मन

अब सर्द होने लगा है

जब देखता हूँ

हर गुज़रते हुए

लम्हों में

सबकी बढ़ती हुई

चाहतों को

मुझसे

मेरी चाहत मांगती हुई

मेरी चाहत

घबरा जाती है

इन चाहती हुई

चाहतों से

और मेरी चाहत का रंग

अब ज़र्द होने लगा है

गुमनामियों के अँधेरे में

खोकर

शायद मैं खुद को

फिर से पा सकूं

खो गया था

मेरा मैं जो

मेरे नाम के शोर में

उसको गुमनाम बना सकूं

कि फिर ना कोई

उम्मीदों की नज़र से

ढूंढ पाए मुझे

इन गुमनामियों के अँधेरे में

मुझे

मेरे नाम से

जोड़ने के लिए

या फिर कोई

चाहत अपनी लेकर

ना हो परेशां

मेरी चाहतों को

अपनी चाहतों से

जोड़ने के लिए

ये गुमनामी के अँधेरे अच्छे हैं

मुझे मेरी हालातों पे

छोड़ने के लिए

और शायद सबकी

उम्मीदों और चाहतों से नाता

तोड़ने के लिए

















Wednesday 17 October 2012

मेरा अंश

तुम आई

भोर की पहली किरण बन कर

छा गई मेरे मन पर

फिर बनी तुम

पहली किरण माहताब की

जैसे खुशबू आई

कहीं से सैकड़ों गुलाब की

फिर

धडकनें सजने लगीं

साँसों में रवानगी आ गई

अरमां करवटें बदलने लगे

ख्वाब सुरमई हो गये

भोर की आँखों में

लाल डोरियाँ

रात की नींदों के भेद

खोलने लगे

तन मन अंगडाईयाँ

लेने लगीं

नए अहसासों की कोपलें

फूटने लगीं

जब तुम मेरे ख़्वाबों में

मुझसे मिलने लगीं

जाने क्यूँ

तुम से मिलकर

यूँ लगा मुझे

शायद कभी कहीं

मेरा कोई अंश

मुझसे अलग हुआ था

वो अंश

मेरा मुझे आज

फिर मिल गया है

Tuesday 16 October 2012

सत्य - इस जीवन का

इस जीवन का

एक सत्य ...

जन्म

दूसरा सत्य ...

मृत्यु

दोनों सत्यों को जोड़ती ...

आत्मा

एक में ....

अंतर्गमन आत्मा का

दुसरे में ...

वहिर्गमन आत्मा का

इन दोनों के मध्य

विरोध ...प्रतिरोध

प्यार ...दुलार

राग .....द्वेष

विरह ....मिलन

और

अंततः

पंचतत्व में विलीन

फिर क्यूँ

मोह इस भोग का

क्यूँ नहीं

अंत इस रोग का

Wednesday 10 October 2012

मेरी कायनात तुम हो

गज़ल भी तुम हो

शे'अर् भी तुम हो

नज़्म भी तुम हो

गीत भी तुम हो

गुल भी तुम हो

गुलशन भी तुम हो

शफ़क भी तुम हो

चाँद भी तुम हो

तारे भी तुम हो

कहकशां भी तुम हो

राह भी तुम हो

मंजिल भी तुम हो

सागर भी तुम हो

साहिल भी तुम हो

दिल भी तुम हो

जज़्बात भी तुम हो

और क्या कहूँ अब मैं

मेरी सारी कायनात तुम हो 

तुम्हारे यादों के गाँठ

कुछ तो है

जो तुम्हें भूलने नहीं देता

शायद गाँठे हैं

तुम्हारी यादों की

जो बाँधी थी तुमने

इस दिल पे

हमारे

उन मिलन की घड़ियों में

जब तुम मेरे पास थी

अगर ये गाँठ

खुल जाए

तो शायद

मैं तुम्हें भूल पाऊं

पर तुमने भी तो

गाँठें इतनी कसकर बाँधी हैं

बेचारा दिल मेरा

कसमसाता है

उन बंधे हुए

गाँठों के अन्दर

पर कुछ कह नहीं पाता

तुमने जो बाँधा था उसे

मैं कोशिश करता हूँ

उन्हें खोलने की

तुम्हें भूलने की

पर उन गाँठों को

खोल नहीं पाता हूँ

और मैं तुम्हें

भूल नहीं पाता हूँ


Monday 8 October 2012

रास्ते का पत्थर

रास्ते का पत्थर

क्यूँ न बन पाया

पत्थर उस मूरत का

जो देव कहलाते हैं

मंदिरों में

क्या वह छोटा था

तराशा नहीं जा सकता था

या फिर

रास्ते पर पड़ा होने से

स्वीकारा नहीं जा सकता था

वो तो चाहता नहीं था

रास्ते पर यूँ ठोकरें खाना

उसका भी स्वप्न था

मंदिरों में पूजा जाना

नियति ने उसको

रास्ते का पत्थर

बना दिया

जहां ठोकरों ने

उसे रुला दिया

अब वह

अवान्छितों को

भगाने के लिए

उठा कर

मारा जाता है

और

ठोकर खाकर

रास्ते में

यूँ ही पड़े रहना

अब उसे भी भाता है

अब वो

रास्ते का पत्थर

कहा जाता है






ज़िन्दगी ने पुकारा हमें

आज अभी अभी

उनकी आवाज़

आई कहीं से

यूँ लगा

ज़िन्दगी ने पुकारा हमें

जैसे

बुझे हुए चिरागों को

शम्मा की

रौशनी मिल गई

साँसों में मेरे

रवानगी आ गई

धडकनें फिर से

सज़ गईं

लहू दौड़ने लगा

रगों में

मिजाज़ में

इक दीवानगी आ गई

ज़िन्दगी से यूँ

रु-ब-रु होना

जैसे मकसद हो

ज़िन्दगी का

वो आवाज़ देते रहें

पुकारते रहें हमें

हम यूँ ही

ज़िन्दगी जीते रहें 

Saturday 6 October 2012

चाहत इक अजनबी की

शायद 
इक अजनबी थे तुम 
जब हम मिले थे
तुम्हारी आँखों ने 
जन्मों की पहचान करा दी 
अपना बनाकर 
हमें इस कदर चाहा तुमने
चाहत से तुम्हारी 
अब हमें मोहब्बत हो गई
पर डरते हैं 
हम इस जहां से 
इसके सलीकों से 
इसके इम्तेहां से 
सच कहते हो तुम 
इन रिश्तों को 
इन्हीं परछाइयों में 
पलने दें हम
क्यूँ कोई नाम दें इसे 
और 
रुसवाई सहें हम 
चाहत अपने दिल की 
दिल में ही रहने दें हम 




जब तुम नहीं थे


सोचता हूँ कभी कभी

जब तुम नहीं थे

तुम क्यूँ नहीं थे

होना तो था ही तुम्हें

जब मिलना तुमसे लिखा हुआ था

शायद

मिलने की घड़ी अभी थी

इसलिए तुम तब नहीं थी 

दिल से ...



यूँ तेरा आना
नज़रें झुकाना
और दिल पे छा जाना 

तुम्हारी मुस्कान
मेरी बरकत
मेरा जहान

तपती धूप
तुम्हारा साया
मन हरसाया

तुम सावन
बरसा नेह
भींगे हम

भोर का सूरज
लाली उसकी
सिन्दूर तुम्हारा



नींद और ख्वाब

नींद आने लगी है 
शायद ख़्वाबों ने जोर मारा है 
कोई मिलने को आतुर है ख़्वाबों में 

आज रात ख़्वाबों में उनसे मिलना है मुझको 
ख़्वाबों में मिलने उनसे अब सोना है मुझको 

चलो नींद की आगोश में खो जाते हैं 
ख़्वाबों के वास्ते चलो हम सो जाते  हैं 

आइये आपको नींद के आगोश में पहुंचा दूं 
मिलने का वादा किया है ये भूलिएगा नहीं 

मिलना तो है हमको अब जिंदगी भर के लिए 
इक रात काफी ना होगी दिल की बात के लिए 

जो अब नहीं सोया तो सब गडबड हो जायेगा 
बोझल पलकों से हमारे इश्क का भेद खुल जायेगा 

आँखों से नींद उड़ाना उन्हें खूब आता है
दीवाना बनाकर सताना उन्हें खूब आता है

ख़्वाबों में भी यूँ ही परेशां किया आपने
जब भी मिलने का वादा लिया हमने

नींद तो तुम साथ लेकर गई थी कल रात
हम जागते रहे आँखों में तेरे ख्वाब लिए

नींदें उड़ा कर हमारी हमारा हाल पूछते हैं
कितनी मासूमियत से वो सवाल पूछते हैं

सपनों में तेरे मेरा यूँ आना जाना है
जैसे आँखों से तेरे मेरा दोस्ताना है



कुछ ख्याल.... दिल से (भाग- १६)

ख्वाहिश है कि वो भी करें इज़हार-ए-इश्क हमसे

डर है कहीं हम यूँ ही दिल ना लगाए बैठे हो उनसे


मेरे अफ़साने का ज़माने ने इतना फ़साना बनाया

उनको लगा हम ने उनसे मिलने का बहाना बनाया


गोया इश्क किसी ने अब तक नहीं ज़माने में किया

इक हमने क्या किया कि चर्चा सारे ज़माने ने किया


वो इस कदर बेखबर बैठे हैं हमारे हर इशारे से

कहते हैं हमारे आने की आहट वो पहचानते हैं


होता है यूँ कि जब इश्क में डूबे होते हैं वो 

मुस्कराहट खुद-ब-खुद उनके लब चूम लेती है 


यूँ मुस्कुरा कर बात टालना खूब आता है उनको 

मेरे इंतज़ार में रंग भरना खूब आता है उनको 


मुझे यकीं था ये दिल मेरा जो कह रहा था 

वो तुम्हारे दिल से पूछकर ही कह रहा था 


तेरा ये मुस्कुराना यूँ शरमाना नज़रें झुकाना 

शायद मेरी तकदीर का ही है इक फ़साना 


अब तो बस ये हसरत है दिल में 

उनकी हर खुशियाँ उनको मिले 


साथ उनका जो मिला ख़ामोशी भी गाने लगी 

रात तारों की बारात में चांदनी गुनगुनाने लगी 


दिल की उदासी का सबब ये है 

उनकी जुदाई से हम डरने लगे हैं 


मेरी जिंदगानी तुम हो मेरी रवानी तुम हो 

खत्म ना हो कभी जो वो कहानी तुम हो 


ये किस्सा तो सदियों पुराना है 

हमारा दिल तुम्हारा दीवाना है 


अंत नहीं इस इज़हार-ए-इश्क का 

चलो मान लेते हैं हमें मोहब्बत है 


शुक्रिया तुम्हारा ए दोस्त मेरी जिंदगी में आने का

वादा निभाया तुमने मुझे जनम जनम में पाने का


तुम मेरी जिंदगी में आकर मेरे महबूब बन गए

कोई क्या जाने तुम मेरे अरमान के मंसूब बन गए


यूँ शुक्रिया मेहरबानी ना कह मेरे अज़ीज़

तेरी जगह तो है इस दिल के बहुत करीब




























कुछ ख्याल.... दिल से (भाग- १५)



अब गुनाह का कौन कहे वो तो सितम पर सितम किये जाते हैं हमपर
हमारी नादानियों को हमारा गुनाह बता कर जुल्म किये जाते हैं हम पर

जब से छेड़ा है मैंने उनकी फुर्सत में इक अफसाना
अपने अपने फ़साने ले पहुंचा उनके पास ये ज़माना

इन दिनों उनसे कहाँ कोई राज़ छुपा पाता हूँ

मेरी साँसे जो रेहन हैं उनकी साँसों के पास


हम कैसे समझे उस इश्क की जुबां
जो वो मुझसे ख़ामोशी से कह जाती है

तेरे अहसासों ने मुझको अक्सर ये बताया है
तु मेरे दिल के पास ही नहीं तू मेरा हमसाया है

जाने तुम्हे ये अहसास है या नहीं
तुम्हारी बातों से मैं खो गया यहीं

अगर आपकी तन्हाईयों में हम खलल डाल रहे हों
तो दूर कर लूँगा मैं खुद को आपकी हर महफ़िल से
  
उनके दिल से रु-ब-रु होता हूँ हर पल
मुझे तो वो बहुत हसीं नज़र आता है
  
अपनी मोहब्बत में वो यूँ फ़ना हो गया
बेखुदी में भी तुमको वो खुदा कह गया
  
तुम को यकीं के हद से आगे चाहा है इस दिल ने
बस यही इल्तिज़ा है कोई कहर न टूटे इस दिल पे

बहुत खफा खफा से लगे वो आज मेरे सरकार
किसी नाचीज़ ने लगता है दुखाया है दिल उनका

मुस्कुरा कर वो हर बात टाल जाते हैं
हम उनकी इस अदा पर मात खाते हैं

ख़्वाबों में मिलकर आपके दीदार की तलब हो रही है 
इक ज़रा रुखसार से पर्दा हटा दीजे तो बात बन जाये 

यूँ दर्द ना समेटो दिल में अपने और ना सिलो यूँ अपनी जुबां को 
कभी गुबार बन कर निकला तो तहस नहस कर देगा ये जहां को 


कुछ ख्याल.... दिल से (भाग- १४)

आप तो जो भी कहेंगी वो तरन्नुम ही होगा 
आपकी जुबान से निकला है तो वो तबस्सुम ही होगा

आँखों ने तेरे मुझसे बहुत पहले कहा था 
तेरे दिल की बातों का खुलासा किया था 

चाहते हो अगर तुम मुझको इस क़दर 
कहते क्यूँ नहीं खुल कर किसका है डर 

मुझे कब से अहसास था तुम्हारे प्यार का 
क्या करूँ मौका ही नहीं मिला इकरार का 

इलज़ाम जो भी लगाना है लगा लो मुझ पर 
उस इश्क का क्या करूँ जो तुमसे हो गया है हमें 

दूर रह कर भी तुम मेरे सामने होते हो
हर शय में जो तुम नज़र आते हो मुझे

अपनी कुछ और तस्वीरों से मेरा दीदार कराओ ना
तुम्हें अपनी आँखों में बसाने को जी चाहता है मेरा

छु कर देखा तुम्हे तो तुम सिहर गई
मुझे लगा मेरे छूने से तुम डर गई 

जब नहीं होता मेरे पास यार मेरा 
दिल भर आता है उसकी याद से मेरा

अपनी तस्वीरों को रख कर अपने क़ैद में वो
अपने दीदार से करते हैं मेरे दिल को महरूम

हम कुछ चुरा तो ना लेंगे आपकी जागीर से
आखिर चाहा है हमने भी आपको अपने दिल से

अपने अकेलेपन का साथी बना लो मुझे 
मैंने तुम्हे अक्सर तन्हाई में अकेला देखा है 

अब कोई तन्हाई नहीं बस ये महफ़िल है 
और इस महफ़िल में यार मेरा शामिल है

जो तुम चाहो तो हम इस जिंदगी का रुख मोड़ दें
तुम जो चाहो अगर तुम्हारे लिए सब कुछ छोड़ दें

सख्त हृदय तुम्हारा

लौह सदृश

सख्त हृदय तुम्हारा

प्रचंड धुप सा तेवर

कैसे सुनाऊँ तुम्हें मैं

उद्गार हृदय का प्रियवर

समन्दर के लहरों के जैसे

उद्गार उठे हृदय में

देख तुम्हारा प्रचंड रूप पर

रहे हृदय के अन्दर

यूँ ही दबे रहे उद्गार अगर

फूटेंगे लावा बन कर

झुलसा देंगे बगिया सारी

बन कर आग समन्दर

तुम तज कर अपना तेवर

चाँद से थोड़ी शीतलता लो

ओस से लो नर्म ठंढक

मन को कोमल होने दो

बसा लो प्रेम को अन्दर

स्वप्न बन कर

बसने दो आँखों में

खुशबू बन साँसों में

धड़कन बनूँ अगर तुम्हारा

रह के हृदय के अन्दर

प्रेम मय कर दूं मैं तुमको

निकाल सख्त यह तेवर

फर्क स्वयं फिर जान लेना तुम

प्रेम कितना गहरा समन्दर

थाह लगा ना पाओगे तुम

डूब डूब उतराओगे

पर यह तो संभव तब होगा

जब मुझको गले लगाओगे


Thursday 4 October 2012

तुम्हारी चाहत


चाहत तुम्हारी कैसी है

जैसे

गर्मी की तपती दुपहरी में

निर्झर बहते झरने के

ठंढे जल में

घंटों पाँव डुबाये रखना

तुम्हारी चाहत

वही ठंढक

वही शीतलता

वही आनंद

ज़िन्दगी में भर देती है

या फिर जैसे

इक नयी भोर में

उगता नया सूरज

अँधेरे को बुहार

उजियारा फैला

नयी उमंग भर देता है

अंग अंग में

तुम्हारी चाहत

वही उमंग

वही रौशनी

मेरे मन में भर देती है

या फिर जैसे

किसी उजड़े गुलशन में

बहार के आने से

कलियाँ गुनगुनाने लगती हैं

फुल खिल उठते हैं

तितलियाँ मचल उठती हैं

तुम्हारी चाहत

मेरे मन के

गुलशन को महका देती है

या फिर जैसे

दिन के ढलते ही

आसमान में फैला सिन्दूर

दूर तक पसर जाता है

तुम्हारी चाहत

मेरे मन के आसमान में

गीले रंग की तरह

सिन्दूर बन पसर जाती है

या फिर जैसे

रात की बाहों में

तारों की छाँव में

चाँद नहलाता है

चकोर को

अपनी चांदनी से

उसकी प्यास बुझाती है

ओस की एक बूँद

तुम्हारी चाहत

नहलाती है मेरे मन को

अपनी चांदनी से

और बुझाती है प्यास

मेरे मन की

अपने प्यार की ओस से












Monday 1 October 2012

वो आज नहीं है

आज मन बहुत उदास है

वो आज नहीं मेरे पास है

जब वो था

हम महीनों में मिलते थे

जब भी मिलते

दोनों के चेहरे खिलते थे

उसने

कभी किसी को उदास

होने नहीं दिया

और कभी

किसी को यह अहसास

होने नहीं दिया

कि

वो यूँ अचानक

हमसे दूर चला जाएगा

फिर लौट कर

कभी नहीं आएगा

आज बस

उसकी याद बाकी है

जाग सके जो ना साथ

वो रात बाकी है