इक धुंध है उस तरफ
जहां कभी ज़िन्दगी थी
मैं था तुम थी
तुम्हारा प्यार था
मेरा दुलार था
वो सारे फ़िक्र थे
हमारे और तुम्हारे
क्यूँ ठंढी पड़ गयी
वो तपीश हमारे चाहत की
क्यूँ फासले उग आये
कैक्टस की तरह
हमारी नजदीकियों के गुलिस्तान में
तुम तुम ना रहे हम हम ना रहे
रिश्तों के उजड़ते रेगिस्तान में
ख्वाहिशें तुम्हारी भी थीं
ख्वाहिशें हमारी भी थीं
उम्मीदों के ढेर
हम दोनों ने लगाये थे
जाने कहाँ से
आकर गिरा
अहम् का बीज
मिटटी में इस सुखी जहान के
ऐसे कांटे उगे
अहम् के दरख्तों पर
लहुलुहान कर दिए
चाहतों को हमारे
झुलस गया
उम्मीदों का गुलशन
अहम् के जलते अंगारों से
ढह गए ख्वाहिशों के महल
जलजले से उस उफान के
जो मन में उठे
अहम् के खींच तान से
रिश्तों की ऊष्मा
कैसे इतनी ठंढी पड़ गई
कि सर्द हवा के झोंकों से
धुंध बन गई तूफ़ान से
हमारे रिश्तों के दरम्यान
अब वो धुंध है उस तरफ
जहां कभी ज़िन्दगी थी
मैं था तुम थी
पर अब
वहाँ कुछ भी नहीं है
ना प्यार है ना दुलार है
ना फ़िक्र ही किसी की
ना किसी का इंतज़ार है
दूर तक बस
धुंध का गुबार है
हर तरफ अन्धकार है
सिर्फ अन्धकार है
bahut accha likha aapne
ReplyDeleteBahut sahi likha hai....
ReplyDeleteजीवन के धुंध को कौन हटा सका है
ReplyDeleteउसी धुंध में तेरा अक्स छुपा हुआ है ....सुन्दर रचना !!