Friday 28 September 2012

इक धुंध


इक धुंध है उस तरफ

जहां कभी ज़िन्दगी थी

मैं था तुम थी

तुम्हारा प्यार था

मेरा दुलार था

वो सारे फ़िक्र थे

हमारे और तुम्हारे

क्यूँ ठंढी पड़ गयी

वो तपीश हमारे चाहत की

क्यूँ फासले उग आये

कैक्टस की तरह

हमारी नजदीकियों के गुलिस्तान में

तुम तुम ना रहे हम हम ना रहे

रिश्तों के उजड़ते रेगिस्तान में

ख्वाहिशें तुम्हारी भी थीं

ख्वाहिशें हमारी भी थीं

उम्मीदों के ढेर

हम दोनों ने लगाये थे

जाने कहाँ से

आकर गिरा

अहम् का बीज

मिटटी में इस सुखी जहान के 

ऐसे कांटे उगे

अहम् के दरख्तों पर

लहुलुहान कर दिए

चाहतों को हमारे

झुलस गया

उम्मीदों का गुलशन

अहम् के जलते अंगारों से

ढह गए ख्वाहिशों के महल

जलजले से उस उफान के

जो मन में उठे

अहम् के खींच तान से

रिश्तों की ऊष्मा

कैसे इतनी ठंढी पड़ गई

कि सर्द हवा के झोंकों से

धुंध बन गई तूफ़ान से

हमारे रिश्तों के दरम्यान

अब वो धुंध है उस तरफ

जहां कभी ज़िन्दगी थी

मैं था तुम थी

पर अब

वहाँ कुछ भी नहीं है

ना प्यार है ना दुलार है

ना फ़िक्र ही किसी की

ना किसी का इंतज़ार है

दूर तक बस

धुंध का गुबार है

हर तरफ अन्धकार है

सिर्फ अन्धकार है




3 comments:

  1. जीवन के धुंध को कौन हटा सका है
    उसी धुंध में तेरा अक्स छुपा हुआ है ....सुन्दर रचना !!

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