Thursday 6 September 2012

मेरे महबूब ....तेरे लिए (भाग-३)


सांसों में अपने ना महसूसा मुझको 
नज़रों में अपने ना देखा मुझको 
यादों में भी आवाज़ ना दी मुझको 
अब धुंध में क्यों ढूँढती हो मुझको 
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मनाएं तब जब कि हमें यह भी मालूम हो 
दिल हमने कब दुखाया था तुम्हारा 
हम हैं कि आवाज़ देते रहे तुमको 
पर फासलों से गुजरना शौक था तुम्हारा 
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मैंने जिंदगी की हदों तक तुझको चाहा है 
चाहत ने मेरी तुझको अपनी हदों से ज्यादा चाहा है 
चाहत पर मुझको अपने बड़ा भरोसा है 
इसने मेरे भरोसे से बाहर जाकर तुझको चाहा है 
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अगर उसकी फितरत में मुझको सताना होगा 
और मेरी किस्मत में उसकी चाहत का फ़साना होगा 
तो लाख दीवारें क्यों ना खड़ी हो जाये हमारे दरमयान 
उसे तोड़कर दुनिया की रस्मों को मेरी बाहों में आना होगा 
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तुम्हे तुम्हारे हुस्न का बहुत गुरूर है 
पर भूलो नहीं मेरे इश्क से इस पर नूर है 
'गर इश्क हमारा कहीं बेपरवाह हो गया तो 
तो हुस्न तुम्हारा हमारे इश्क के लिए तड़पेगा 
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दिल में तुम्हारे अपने निशाँ छोड जाऐंगे
आँखों में प्यार के अरमां छोड जाऐंगे
याद रखना मुझे ढूँढते फिरोगे एक दिन
जब हम जिन्दगी तुम्हारे नाम कर जाऐंगे
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सजा काश मेरी मुझको तुमने सुनाई होती,
रूठ जाने की वजह बताई होती,
फना कर देता मैं खुद को तुम्हारे लिए
गर कभी अपनी चाहत जताई होती
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आप आये मेरी जिन्दगी में इक कहानी बनकर 
इस दिल में रहे प्यार की निशानी बन कर
हमने अपनी चाहत से रु-ब-रु कराया आपको 
आप हैं कि बहे जाते है आँखों से पानी बन कर
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अपनी आँखों से कोई इशारा तो किया होता
मुझे जीने
का सहारा तो दिया होता
बात जब भी आई उल्फत को निभाने की
कह कर तो देखते तोड़
देते हर रस्म जमाने की

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