Wednesday 12 September 2012

तेरा यौवन

कैसे तेरा बखान करूँ

हर शब्द मुझे भरमाते हैं

तेरे यौवन के आँगन में

मेरे शब्द कम पड़ जाते हैं

अधखिले कमल नहीं

ना ही दिये की बाती

तेरे ये दोनों नयन

किसी दूर देश से आते हैं

तेरे अधरों को क्या कहूं

कभी मदिरा के प्याले लगते

कभी पंखुड़ी गुलाब की

बड़ी मुश्किल में पड़ जाता हूँ

जब अधर तेरे शरमाते हैं

काया तेरी कंचन वाली

चाल हिरणों सी मतवाली

कंचन हिरण भूल जाऊं सब

जब कदम तेरे इठलाते हैं

रंग रूप और यौवन तेरा

जैसे हो सम्मोहन का घेरा

कितना भी रोकूँ खुद को

मेरे कदम बहक ही जाते हैं

तुझको बनाकर ईश्वर भी

खुद पर ज़रूर इतराता होगा

फिर मैं तो निरा मानव ठहरा

तुझे देख फ़रिश्ते भी फिसल जाते हैं





1 comment:

  1. वाह ! रूमानियत से भरी श्रंगार रस से परिपूर्ण, सुन्दर रचना....

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