Thursday 6 September 2012

मेरे महबूब ....तेरे लिए (भाग-४)


उनके होठों पर जब मेरा नाम आया होगा
ज़माने की रुसवाई से खुद को कैसे बचाया होगा
सुन के फ़साना औरों से मेरी बरबादी का
क्या उनको अपना सितम याद ना आया होगा
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जब तू नहीं होती ये तन्हाई बहुत तड़पाती है 
ना चाहूँ फिर भी तेरी याद बहुत सताती है 
क्या करूँ मैं तुमको कहाँ से लाऊं ए सनम 
कहीं से भी मेरी बाहों में आ जाओ न सनम 
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तड़पना और तड़पाना हमने तुझसे ही सिखा है सनम 
बड़े सुकूं से जी रहे थे हम अपनी ये जिंदगी ए सनम 
लाकर हमें कहाँ खड़ा कर दिया इस इश्क की रवायतों ने 
बड़ी मासूमियत से लूटा है मेरा दिल उनकी इनायतों ने 
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साहिल की रेत पे लिखते हो तुम नाम मेरा 
वहाँ बार बार लहरें आकर उन्हें मिटाती है 
फिर इस से बेहतर तो वो पत्थर ही होता 
जिस पर नाम मेरा सदियों तक खुदा होता 
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तेरी वफाओं का मैं कभी ये सिला दे नहीं सकता
तू कुछ भी कहे मैं तुझे बेवफा कह नहीं सकता
राह-ए-वफ़ा मेरी तुझसे ही रोशन हुई है सनम
इस जिंदगी में कभी तुझसे जुदा हो नहीं सकता
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मुलाकातों से कहीं फिर ये सिलसिला ना हो
ना मिले कभी जो हम अगर तो ये गिला ना हो
मिलने का वादा तो तुमने कर लिया मुझसे ओ सनम
पर तुझे फुरसत ना मिली मिलने को मुझसे ओ सनम

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