Monday 24 September 2012

तुम चले गए


कहते हैं

जीवन क्षण भंगुर होता है

पर ऐसे कहीं कोई

किसी से दूर होता है

जिस तरह

तुम चले गए

हम सब से दूर

कैसे ताक रहे

हम रस्ता तुम्हारा

होकर अपनी

आदत से मजबूर

जबकि हमको ये मालूम है

जहां तुम गए हो

वहाँ से कोई नहीं आता है

वहाँ तो बस जाते हैं सब

लौट कर कोई नहीं आता है

कैसा ये खेल है ईश्वर का

हश्र तो यही लिखा है

इस शरीर नश्वर का

पर एक उम्र जी कर जाते

तो शायद

हम विधि का लेखा मान लेते

अभी तो

तुम्हारा सारा काम पड़ा था

जीवन के दायित्वों का

पूरा रेला खड़ा था

तुमने इनसे

कैसे मुंह मोड़ लिया

तुम्हारा यूँ जाना

कैसे सबको तोड़ दिया

तुम्हारी सुहागन बन

जो इतराती थी

सोलह श्रृंगार कर

इठलाती थी

रंग श्वेत पड़ गया

उस अभागन का

रक्त सारा जैसे

किसी ने निचोड़ लिया

हँसता खेलता

परिवार तुम्हारा

सब को तुम

कर गए बेसहारा

ज़िन्दगी तो

सब फिर भी जी रहे हैं

हर सच्चाई की

कड़वाहट भी पी रहे हैं

बस इक जो तुम नहीं हो

उनके संग

उनकी ज़िन्दगी रह गयी है

होकर बेरंग

वो बेशक अब भी मुस्कुराते हैं

सब से मिलते मिलाते हैं

पर दर्द अपने सीने का वो

हम सब से छुपा जाते हैं


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