कहते हैं
जीवन क्षण भंगुर होता है
पर ऐसे कहीं कोई
किसी से दूर होता है
जिस तरह
तुम चले गए
हम सब से दूर
कैसे ताक रहे
हम रस्ता तुम्हारा
होकर अपनी
आदत से मजबूर
जबकि हमको ये मालूम है
जहां तुम गए हो
वहाँ से कोई नहीं आता है
वहाँ तो बस जाते हैं सब
लौट कर कोई नहीं आता है
कैसा ये खेल है ईश्वर का
हश्र तो यही लिखा है
इस शरीर नश्वर का
पर एक उम्र जी कर जाते
तो शायद
हम विधि का लेखा मान लेते
अभी तो
तुम्हारा सारा काम पड़ा था
जीवन के दायित्वों का
पूरा रेला खड़ा था
तुमने इनसे
कैसे मुंह मोड़ लिया
तुम्हारा यूँ जाना
कैसे सबको तोड़ दिया
तुम्हारी सुहागन बन
जो इतराती थी
सोलह श्रृंगार कर
इठलाती थी
रंग श्वेत पड़ गया
उस अभागन का
रक्त सारा जैसे
किसी ने निचोड़ लिया
हँसता खेलता
परिवार तुम्हारा
सब को तुम
कर गए बेसहारा
ज़िन्दगी तो
सब फिर भी जी रहे हैं
हर सच्चाई की
कड़वाहट भी पी रहे हैं
बस इक जो तुम नहीं हो
उनके संग
उनकी ज़िन्दगी रह गयी है
होकर बेरंग
वो बेशक अब भी मुस्कुराते हैं
सब से मिलते मिलाते हैं
पर दर्द अपने सीने का वो
हम सब से छुपा जाते हैं
Shradhanjali...........
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