Saturday 22 September 2012

बदलते रिश्ते

तुम कहते हो

रिश्ते बदल जाते हैं

मैं कहता हूँ

रिश्ते नहीं

हम बदल जाते हैं

रिश्तों का क्या है

वो तो हम बनाते हैं

रिश्तों को तो मालूम भी नहीं

हम उनसे क्या चाहते हैं

वो तो बस हम से

बन जाते हैं

फिर हम उन पर

ना जाने

क्या क्या ज़ुल्म ढाते हैं

कभी ये भी नहीं देख पाते हैं

कि आखिर

ये रिश्ते हमसे क्या चाहते हैं

अपेक्षाओं और चाहतों का

सिलसिला

या फिर उनके आँगन में

हँसता मुस्कुराता

कोई फूल खिला

हम बस अपनी ही

करते चले जाते हैं

रिश्तों पर क्या बीती

यह देख नहीं पाते हैं

फिर इन्हीं पे

ये इलज़ाम लगाते हैं

जाने क्यूँ

ये रिश्ते बदल जाते हैं




1 comment:

  1. हकीकत .....
    हर पल जिंदगी में बदलता है आदमी
    और कहता है जिंदगी बदल गयी है....

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