Wednesday 19 September 2012

तुम्हारा नाजुक मन

जाने क्यूँ

अक्सर मैंने

जाने अनजाने

आहत किया है

तुम्हारा नाजुक मन

तुमने तो सौंपा था मुझको 

अपना तन मन

किया था जब

पूर्ण समर्पण

पर मैं समझ नहीं पाया

तुम्हारा अंतर्मन

तुम्हारे मन की व्यथा

तुम्हारे मन की कथा

जो तुम कहना चाहती थी

हरदम मुझसे

पर मैं अनजान रहा उनसे

कुछ अहम् मेरा

कुछ तुम्हारी नादानियाँ

कुछ उम्मीदें मेरी

कुछ तुम्हारी नाफरमानियाँ

कुछ वक़्त की बंदिशें

कुछ मेरी लापरवाहियाँ

कुछ तुम्हारा भोलापन

कुछ मेरी बेपरवाहियाँ

आज तुमको यूँ उदास देखा

तो मेरा जी भर आया

तुमने अपनी हर ख़ुशी 

मेरी ख़ुशी के लिए गंवाया

और मैं हूँ कि

तुमको समझ ही नहीं पाया

मेरी ज़िन्दगी हो तुम

मेरी ज़िन्दगी तुमसे है

अब कोई गम कभी तुमको

भूल कर भी छू नहीं पायेगा

खुशियाँ ही खुशियाँ होंगी

हर तरफ

वक़्त भी मुस्कुराएगा







1 comment:

  1. बहुत सुन्दर प्रशांत जी.....
    सारे ज़ख्म भर गए..........
    बेहतरीन रचना...

    अनु

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