हमारी मानसिकता
ईश्वर ने जो रच कर दिया
मानस पटल
वो किंचन था
निर्मल था
पर उसमें हमने बो दिया
अपनी संकीर्णता का ज़हर
और फिर हमारी कलुषित सोच से
सिंचित होकर
वो फल फूल कर
बन गया
कुंठित काँटों की फसल
अब
उस फसल को खाते हैं हम
और फिर
कुंठित कहलाते हैं हम
क्यूँ नहीं फिर
हम गीले कच्चे मानस पटल पर
अच्छी सोच को बोते हैं
जब हम बच्चे होते हैं
कितने सच्चे होते हैं
फिर क्यूँ नहीं वही सच्चाई
हम जीवन भर ढोते हैं
काश अगर ऐसा हो जाए
तो कभी मानस पटल पर
कुंठा की फसल उग ना पाए
सोच हमारी फिर संकीर्ण ना हो
और
कुंठित हम न कहलाये
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