जाने कहाँ से है आयी
घर घर में है आग लगायी
इसे डायन कहो या चुड़ैल
पैसों की है ये रखैल
पैसे इसको भाते हैं
तभी अमीर ही इसको खाते हैं
गरीबों से इसकी दुश्मनी है
जाने कब से उनसे ठनी है
ज़रा इसकी रफ़्तार तो देखो
जैसे घोड़े पे सवार हो देखो
रुकने का कोई नाम नहीं है
इसका कोई धाम नहीं है
करती हरदम मनमानी है
थमने को तो नहीं ठानी है
जब से बढ़ी है महंगाई
जन जन की है शामत आई
खाने को लाले पड़े हैं
लेने वाले मुंह बाए खड़े हैं
उनको देवें या पेट भरें हम
हर सांस इसी सांसत में मरे हम
बच्चों की फीस भी बाकी
घर की इज्ज़त कैसों ढाँकी
अब न रुकी जो महंगाई
लूट जाएगी पाई पाई
जिसकी जितनी है कमाई
फिर कौन करेगा भरपाई
प्राण अगर निकल गए
करते करते ये लड़ाई
जीतेगी तो यही महंगाई
अहेम-अहेम !! सन्सर बोर्ड ... :)
ReplyDeleteमजाक था, आपकी रचना सशक्त और सम-सामयिक है - बिलकुल आज की तस्वीर !! सचमुच, खाएं क्या और बचाएं क्या ??? बहुत खूब :)