Monday 9 July 2012

विडम्बना

विस्मित हूँ मैं ---

उन विडम्बनाओं से

जो जिंदगी में 

कितने मायने भर जाते हैं

हम सोचते रह जाते हैं

बस इन मायनों से 

दंग हो कर रह जाते हैं

सोचते हैं हम और कुछ

होता कुछ और है

रास्ते हम बनाते हैं

चलता कोई और है

मंजिलें हम चुनते हैं

पाता कोई और है

खुशियाँ हमारे हिस्से की

ले जाता कोई और है

ग़मों का बादल मंडराते

आता जब भी इस ओर है

सब खुश हो जाते यह सोच कर 

जाना इसे कहीं और है

साथी मेरे संगी सारे

तन्हाई के मेरे सहारे

उनकी महफ़िल में

मैं नहीं अब कोई और है

जिसके संग रिश्ते बनाए 

वो सब निकले कोई और हैं 

किस्मत पर अपनी भरोसा है 

मगर होनी तो कुछ और है

जिंदगी अपनी थी मगर

जिया इसे कोई और है

मौत से सब डरते हैं इसलिए 

हिस्से में किसी और की हो 

पर मृत कोई और है 

विस्मित हूँ मैं ---

जिंदगी की विडम्बनाओं से

होने को था कुछ और मगर

होता क्यों कुछ और है ?







No comments:

Post a Comment