Thursday 5 July 2012

ज़मीन का वो टुकड़ा

आह

ज़मीन का वो टुकड़ा

कभी फसलों से लहलहाता था

मेरे मन को हुलसाता था

मेरे बचपन का हर इक पल

उस ज़मीन से होकर गुज़रा था 

कितनी सारी यादों का

कितनी सारी बातों का

हिस्सा वो ज़मीन का टुकड़ा था

और फिर एक दिन

सब कुछ जैसे उजड गया

वो ज़मीन

हरियाली से बिछड गया

अब वहाँ ऊंची ऊंची इमारतें हैं

ज़माने की सारी अदावतें हैं

इमारतों की कतारें हैं

और कुछ नहीं बस

ईंट की दीवारें हैं

दम घुटता है

उस ज़मीन का

दबे दबे कंक्रीट के नीचे

सह रहा है फिर भी सब कुछ

बस अपने मन को भींचे

कहाँ वो लहलहाती हरियाली

और उनपर मंडराती

तितलियाँ मतवाली

अब ना वो हरियाली है

ना तितलियाँ मतवाली हैं

ना वो सांझ सवेरा है

ना ही फसलों का फेरा है

बस चारों तरफ अँधेरा है

चारों तरफ अँधेरा है ---






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