Monday 2 July 2012

वो पथराई आँखें

वो पथराई आँखें

बुझते दिए की लौ की तरह 

बुझने से पहले की टिमटिमाहट लिए

हड्डियों का ढांचा मात्र

चमड़ी हड्डियों से चिपके हुए

आँगन में खाट पर बैठी

दरवाज़े को अपलक तकती

एक अंतहीन इंतज़ार में

वो एक माँ है

उस बेटे की

जो दूर कहीं बैठा

पैसे कमाता है

अपने भेजे पैसे से

माँ को रोटी खिलाता है

पर माँ की ममता भूखी है

बेटे से मिलने की आस में

छाती उसकी सूखी है

क्या इक पल को भी उस बेटे को 

अपनी माँ की याद ना आई

माँ ने इस काबिल किया

फिर भी उसकी आँख ना शरमाई

कितनी रातें जागी होगी

खाली पेट ही सोयी होगी 

उसके हर सुख की खातिर 

दुःख के आंसू रोयी होगी

दिन महीने साल बीत गए

ना वो आया

ना कोई संदेशा आया

बस हर महीने का मनी आर्डर 

उसके होने का भान कराता है

अब उस माँ की ममता की कीमत

वो बस पैसों से लगाता है

माँ को मनीआर्डर भेज कर

बेटे का फ़र्ज़ निभाता है












1 comment:

  1. bahut sundar rachna....... sachmuch, tabhi shayad kahte hain ki pet pahaad hai !!!!!!!!!! fir bhi... mujhe lagta hai ki bhookh kuchh had tak sahya ho sakti hai, yadi mann bhara ho to.......

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