Thursday, 19 June 2025

जुदाई की आवाज़ - रूह से बिछड़ने की पुकार

 

तेरे जाने के बाद,
वक़्त ठहर सा गया...
घड़ियों की टिक-टिक में
तेरी सांसें नहीं थीं।

कमरे की दीवारें
तेरा नाम दोहराती रहीं,
और पर्दे,
तेरी खुशबू को ओढ़े
चुपचाप हिलते रहे।

मैं ज़िंदा था,
मगर जी नहीं रहा था —
एक खाली जिस्म,
जिससे रूह को कोई चुरा ले गया।

हर सुबह
तेरे बिना अधूरी लगती,
जैसे सूरज उगा हो
पर रौशनी कहीं खो गई हो।

तेरे भेजे हुए
चंद लफ़्ज़ों की ख़ुशबू में
हर रात लिपट कर रोया,
तेरे नाम से
अपनी तक़दीर को पुकारा।

चाय का कप,
तेरी ऊँगली की छाप लिए बैठा था,
और किताबें,
तेरे पढ़े हर सफ़े से
तेरी आवाज़ सुनाती थीं।

"जान-ए-अज़ीज़..."
तेरी ये पुकार
अब भी हर हवा से टकराती है,
और मेरी रूह
हर बार झूम के गिर जाती है।

तेरे क़दमों की आहट
हर सड़क पर ढूँढी मैंने,
तेरी परछाई को
हर चेहरे में तलाशा...

मस्जिद की अज़ान,
मंदिर की घंटियाँ,
गिरिजे की घंटियाँ —
सब में तेरा नाम सुना।

मैंने इश्क़ को
तन्हा जीया,
बिना शिकायत,
बिना तकरार,
बस इक उम्मीद लेकर,
कि तू फिर आएगा।

कभी चाँद से पूछा,
क्या तूने उसे देखा है?
कभी बारिश से माँगी
उसके आँसुओं की नमी।

रातें —
जैसे सदियों की चुप्पियाँ ओढ़े
तेरी गोदी ढूंढती रहीं,
और मैं,
एक टूटे तारे सा
तेरी क़ायनात से गिरा पड़ा रहा।

हर ख़त जो लिखा,
तेरी रूह को पढ़ा...
हर दुआ जो मांगी,
बस तुझसे मिलने की थी।

जुदाई —
इक फ़ासला नहीं था,
इक क़ब्र थी,
जिसमें मैं हर रोज़
तेरी यादों को दफ़न करता रहा।

मगर फिर भी,
तेरी मोहब्बत ने
हर दर्द को सहने का हुनर दे दिया।
तेरे जाने के बाद भी
मैंने तुझे
खुद से जाने नहीं दिया।


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