Monday, 9 June 2025

पहली नज़र, अंतिम साँस - एक प्रेम जो समय से परे है


कॉलेज की पहली सुबह थी,
कुछ बेचैन, कुछ अनजानी।

क्लास में गैलरी थीं
जैसे शहर की गलियाँ —
हर चेहरा नया,
हर स्वर अपरिचित।

मैं प्रवेश करता हूँ,
हाथों में किताबें,
मन में हिचकिचाहटें लिए 

तभी —
एक ठहराव…
जैसे हवा थम गई हो।

तुम बैठी थी —
सामने, बिल्कुल साफ़।

तुम्हारी आँखों में
एक मौन प्रश्न था,
और होंठों पर
एक मंद मुस्कान —
जैसे कोई धुन
कानों में नहीं,
दिल में बज रहा हो।

वो एक क्षण —
छोटा नहीं था,
वो समय से बाहर था।
मैं टकटकी लगाए
देखता रहा…
और तुम,                                                                                                                                                        मुझे ऐसे निहारती रही 
जैसे मुझे पहचानती हो
किसी और जन्म से।

वो दिन बीत गया,
पर रात…
रात ने सवाल पूछे।

नींद नहीं आई,
पर सपने आते रहे —
जागी आँखों में।

एक चेहरा,
एक मुस्कान,
एक ठहरी हुई नज़र —
जैसे वो लम्हा
बार-बार दोहराता हो
ख़ुद को।

तभी जाना —
ये हलचल कुछ और है।
ये सिर्फ आकर्षण नहीं,
ये कोई पुराना रिश्ता है
जो नए लिबास में आया है।

मुझे…
तुमसे
पहली नज़र में
प्यार हो गया था।

उसके बाद
हर दिन
तुम्हें ढूँढ़ने में बीतता।

कभी लाइब्रेरी के सन्नाटों में,
कभी गलियारों की धूप में,
कभी कैंटीन के शोर में
बस एक चेहरा
हर कोने से झाँकता।

और जब तुम्हारी आँखें
मेरी तलाश से टकरातीं —
तो कुछ पल
ठहर जाते थे।

ना तुम कुछ कहती,
ना मैं कुछ पूछता,
फिर भी
हर चीज़ बोलती थी।

धीरे-धीरे
मुलाक़ातें जुड़ने लगीं —
छोटी बातें,
छोटे इशारे,
छोटी हँसी।

फिर वो पहला स्पर्श —
जो बातों से ज़्यादा
विश्वास से भरा था 

फिर पहला आलिंगन —
जैसे
दो अधूरी आत्माएँ
एक साँस में समा गई हों।

फिर चिट्ठियाँ —
स्याही में भीगते                                                                                                                                                  तुम्हारी खुशबू समेटे 
अधूरे वाक्य,
जो पूरी कविता बनते गए                                                                                                                              किताबों के पन्नों पे 


पर फिर…
एक दिन
कोई आंधी चली।

ना शोर था,
ना तूफ़ान,
बस चुपचाप
हम अलग हो गए।

कारण नहीं,
स्पष्टीकरण नहीं —
जैसे कोई दृश्य
किसी पुराने उपन्यास से
फाड़ कर निकाल लिया गया हो।

हम दोनों
अपनी-अपनी दुनिया में
खो गए।

दिन गुज़रते रहे,
साल बीतते रहे —
चार दशक से भी अधिक…

पर दिल
वहीं अटका रहा।

हर भीड़ में
एक चेहरा ढूँढ़ता रहा —
तेरा।

फिर —

एक दिन
एक नाम देखा
किसी जगह ,
किसी पोस्ट में,
किसी याद में।

मैंने लिख भेजा
एक सादा सा संदेश —
"क्या तुम वही हो…?"

जवाब आया —
"हाँ, अब भी वही हूँ।"

और तब —
वक़्त रुक गया।

हम फिर से मिले —
नए बाल,
थोड़ी झुर्रियाँ,
पर वही आँखें —
जिन्हें देखकर
मैंने पहली बार
प्यार जाना था।

हमने मिलकर
कुछ आँसू बहाए,
कुछ शिकवे कहे,
और बहुत देर
बस एक-दूसरे को
देखते रहे।

और फिर
वही हलचल
फिर से
जाग उठी।

अब हम साथ हैं —

ना उम्र की सीमा में,
ना समय के तराज़ू में।

अब प्रेम
ना दिखावा है,
ना कोई सबूत —
अब वो एक सांस है,
जो साथ-साथ चलती है।

हम बहुत कुछ नहीं कहते,
क्योंकि अब
शब्दों की ज़रूरत नहीं।

तेरी चुप्पी में
मुझे पूरा संसार मिलता है,
और मेरी मौन में
तू अपनी जगह पा लेती है।

अब कोई चिट्ठियाँ नहीं,
ना गुलाब,
ना वादे —
फिर भी
हर सुबह
एक नई कविता बन जाती है।

अब हम जुदा नहीं होंगे —
क्योंकि ये साथ
सिर्फ साथ नहीं,
ये अधूरी कहानी का
पूर्ण विराम है।

तू मेरी
पहली नज़र थी,
अब तू
मेरी अंतिम साँस है।


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