कॉलेज का पहला दिन — नई जगह नए लोग
हर जगह हलचल
हर जगह भीड़।
नए चेहरे,
नई आवाज़ें,
नई साँसों की सरगोशियाँ।
जैसे समय कोई
नई किताब खोल रहा था।
मैं क्लासरूम के दरवाज़े से
अंदर आया —
थोड़ा संकोच,
थोड़ी थकन,
और बहुत-सी अजनबीयत लिए
तभी —
एक ठहराव सा आया …
जैसे पूरी कायनात थम गई हो उस एक पल में
तुम बैठी थी —
सामने, बिल्कुल सामने तुम्हारी आँखें मुझे निहार रही थीं
अपलक,
निर्भीक,
जैसे वर्षों से जानती हो
मुझे।
उन आँखों में
एक मौन प्रश्न था,
और होंठों पर
एक मंद मुस्कान —
जैसे कोई धुन
कानों में नहीं,
दिल में बज रहा हो।
वो एक क्षण —
छोटा नहीं था,
वो समय से बाहर था।
मैं थोड़ी देर
उस नज़र में उलझा रहा —
और फिर पीछे जाकर
बैठ गया।
बैठते ही
कुछ अजीब-सा हुआ —
मन में एक हलचल सी हुई
और भीतर
एक हल्की-सी धड़कन
तेज़ हो गई।
शाम ढली,
क्लास का कोलाहल शांत हुआ।
मैं घर लौटा,
पर वो चेहरा
अब भी वहीं था —
मेरी पलकों के पीछे।
रात आई,
पर नींद नहीं।
हर करवट में
उसकी मुस्कान उभरती,
हर सन्नाटे में
उसकी आँखें झाँकतीं।
नींद नहीं आई,
पर सपने आते रहे —
जागती आँखों में।
एक चेहरा,
एक मुस्कान,
एक ठहरी हुई नज़र —
जैसे वो लम्हा
बार-बार दोहराता हो
ख़ुद को।
मैंने सिर घुमाया,
किताब खोली,
गीत सुने,
पर कुछ भी
उसे मेरी सोच से हटा नहीं सका।
तभी अचानक
यह अहसास हुआ —
कि कुछ हुआ है मुझको
ये कोई कशिश नहीं,
ना ही कोई खयाल
कुछ ऐसा है
जो भीतर से उठा
जैसे पहली बार
दिल ने
अपने लिए धड़कना चुना हो।
उस रात
नींद नहीं टूटी,
बल्कि
मैं टूटा —
अपने पुराने अकेलेपन से।
सुबह होते ही
सब कुछ बदल चुका था।
मैंने खुद को
आईने में देखा —
और आँखों में
वही बेचैनी पाई,
जो कल
उसकी आँखों में थी।
मुझे…
तुमसे
पहली नज़र में
प्यार हो गया था।
उसके बाद
हर दिन
तुम्हें ढूँढ़ने में बीतता।
और जब तुम्हारी आँखें
मेरी तलाश से टकरातीं —
तो कुछ पल
ठहर जाते थे।
ना तुम कुछ कहती,
ना मैं कुछ पूछता,
फिर भी
हर चीज़ बोलती थी।
धीरे-धीरे
मुलाक़ातें जुड़ने लगीं —
छोटी बातें,
छोटे इशारे,
छोटी हँसी।
कभी लाइब्रेरी के सन्नाटों में —
जहाँ किताबों की ताकों में
सिर झुकाए हम दोनों
एक ही पंक्ति पढ़ते रहते,
पर असल में
एक-दूसरे की साँसें गिन रहे होते।
तुम्हारी उँगलियाँ
पन्नों पर रुकतीं —
ठीक वहीं
जहाँ मेरी आँखें भी ठिठकी होतीं।
कभी स्टेडियम की ऊँची सीढ़ियों पर —
सबसे दूर
हम दो चुप लोग
एक-दूसरे की हँसी सुन लेते।
तुम मेरा नाम नहीं लेतीं,
पर हर सांस पर
तुम्हारी आँखें
मेरी तरफ़ ही मुड़तीं।
लैब के पीछे की वो दीवार —
जहाँ धूप कम आती थी
पर हमारे दिल ज़्यादा धड़कते थे।
तुम वहाँ मेरा इंतज़ार करतीं,
मैं वहाँ
हर दिन थोड़ी देर पहले पहुँचता।
वहीं
तुम्हारे कंधों पर
मेरे हाथ पहली बार ठहरे थे।
वहीं
तुम्हारे बालों में
मैंने साँझ की ख़ुशबू महसूस की थी।
तुम्हारे घर जाने का वक़्त मेरे दिल की घड़ी में दर्ज़ था तुम्हारे निकलते ही मैं अपने आप खिड़की के पास आ जाता और तुम्हें जाते अपलक देखता रहता
कभी जब तुम अचानक मेरे सामने आ जाती तो तुम्हारा तुम पर कोई इख्तियार नहीं रहता और तुम मुझमें ऐसे खो जाती कि कभी तुम्हारी हाथों से किताबें गिर जाती तो कभी तुम अपना रास्ता भूल जाती
एक दिन
तुमने मुझे अपने घर बुलाया —
माँ की दोपहर की नींद में
हम चुपचाप बातें करते रहे।
तुम्हारा कमरा
किताबों और संगीत की दुनिया थी —
और एक खिड़की,
जहाँ से आती हवा में
तुम्हारे चेहरे की रौशनी
फड़फड़ाती थी।
तुमने धीरे से कहा —
“बैठो…”
और मैं कुछ बोले बिना
तुम्हारे पास आ बैठा।
फिर एक साँस,
फिर एक मौन,
फिर तुम्हारे हाथ मेरे हाथ में —
और कुछ देर बाद
तुम मेरी बाँहों में थी।
तुम्हारे सिर का वजन
मेरे कंधे पर उतर आया था
जैसे कोई पुराना वादा
अंततः पूरा हुआ हो।
फिर पहला चुम्बन —
जिसमें
ना जल्दबाज़ी थी
ना डर,
बस बहुत गहरी
पहचान थी।
कब कितना वक़्त बीत गया इसका अहसास ही नहीं हुआ हम आलिंगनबद्ध यूँ ही एक दुसरे की धड़कनों को सुनते रहे दिन की धुप ढल कर शाम की चादर में समा चुकी थी
माँ ने जब सहन से आवाज़ दी तब हमारी तन्द्रा टूटी पर तब तक हम दो बदन एक जान बन चुके थे तुम्हारी आँखों ने मुस्कुरा कर कुछ कहा और मेरी आँखों ने उसे फ़ौरन मेरे दिल तक पहुंचा दिया था हम जनम जनम के लिए एक हो चुके थे
उस दिन
जब हम अलग हुए —
तुमने अपनी सबसे प्यारी किताब खोली
और उसके पन्नों के बीच
एक चिट्ठी रख दी।
मैंने उसे वहीं से लिया —
बिना कुछ कहे।
उसमें लिखा था —
“अगर तुम ये पढ़ रहे हो,
तो शायद
तुम भी वही महसूस करते हो
जो मैं…”
उसके बाद
हर मिलन में
एक चिट्ठी होती थी —
कभी तुम्हारी ओर से ढेर सारी खुशबू के साथ
कभी मेरी ओर से मेरे दिल के जज्बात
हम उन्हें
कभी “जॉर्डन निगम ” में,
कभी “ए सी दत्ता” में,
तो कभी “क्लास नोट्स” में
छुपाते थे।
और
उन्हें पढ़ते थे —
सबकी निगाहों से छुपाकर,
कभी क्लास की आख़िरी बेंच पर,
कभी घने पेड़ के नीचे, कभी रातों को टॉर्च जलाकर
कभी एक-दूसरे की आँखों में।
हर चिट्ठी
एक कविता होती थी —
अधूरी,
पर पूरी।
हर मिलन
जैसे एक पृष्ठ होता था
हमारी अनकही किताब का।
सब कुछ ठीक चल रहा था —
या शायद
हमने यही मान लिया था।
तब ना कोई संकेत था,
ना कोई चेतावनी।
बस एक दिन
एक आंधी आई —
बेआवाज़,
पर बेहद तेज़।
जैसे किसी ने
हमारे बीच की किताब
अचानक बंद कर दी हो —
बिना पन्ने पढ़े।
मुझे शहर छोड़ना पड़ा —
तुरंत।
तुम्हें पता चला
मेरे जाने के बाद।
ना एक विदा,
ना एक शब्द।
जहाँ तुम कभी थी —
वहाँ अब सिर्फ़
ख़ाली जगहें थीं।
मैंने तुम्हारी हर चिट्ठी संभाली थी —
पर अब
हर चिट्ठी जवाब बन गई थी
जिसका कोई सवाल नहीं था।
मैंने लिखा —
बार-बार।
तुम तक कोई जवाब नहीं पहुँचा।
मैंने ढूँढ़ा —
कई सालों तक।
तुम्हारे पुराने दोस्तों से,
पुस्तकालय के रजिस्टर से,
पुरानी तस्वीरों से।
हर बार
मुझे लगा —
अब मिल जाओगी।
पर हर बार
कोई रास्ता
कहीं और मुड़ जाता।
समय बीतता रहा।
दशकों की परतें
हमारे बीच चढ़ती गईं।
हम दोनों
अपनी-अपनी दुनियाओं में
जीने लगे।
पर एक कोना था
जो कभी भरा नहीं —
एक गीत था
जो कभी ख़त्म नहीं हुआ।
और ये दिल
वहीं अटका रहा।
हर भीड़ में
एक चेहरा ढूँढ़ता रहा —
तेरा।
और फिर…
किसी शाम,
जब उम्मीद थक चुकी थी —
एक दिन
एक नाम देखा
किसी जगह ,
किसी पोस्ट में,
किसी याद में।
मैंने लिख भेजा
एक सादा सा संदेश —
"क्या तुम वही हो…?"
तुमने जवाब दिया —
धीरे से,
डरते हुए,
आशा और संशय के बीच।
"हाँ, अब भी वही हूँ।"
और तब —
वक़्त रुक गया।
तुमने फिर लिखा —
और जैसे वर्षों के मौन ने
किसी दरार से
फूल उगा दिया।
हम मिले —
वीडियो कॉल पे
तुम सामने बैठी थीं,
उम्र थोड़ी आगे बढ़ी थी,
पर आँखें…
अब भी वही थीं।
कुछ देर तक
कोई कुछ नहीं बोला।
बस देखते रहे —
जैसे खोया हुआ चित्र
फिर से पाया हो।
फिर एक मुस्कान टूटी,
फिर मेरी उँगलियाँ
तुम्हें छूने फ़ोन की स्क्रीन तक पहुंची —
धीरे,
सम्मान से,
डरते हुए नहीं,
बल्कि समझते हुए।
हमने मिलकर
कुछ आँसू बहाए,
कुछ शिकवे कहे,
और बहुत देर
बस एक-दूसरे को
देखते रहे।
आँखें नम थीं,
पर
प्यार अब भी वहीं था —
बिलकुल ताज़ा,
बिलकुल पूरा।
वो नज़रों की प्यास
फिर लौट आई,
वो चुपचाप छू जाना
फिर जाग उठा।
हमने अपने अपने दुःखों के पन्ने खोले —
कुछ नम थे,
कुछ पुराने।
पर प्रेम —
वो अब भी
साफ़ लिखा था।
हमने माफ़ किया,
एक-दूसरे को भी,
समय को भी।
और उस शाम
जब हम उठे —
तो ऐसा लगा
जैसे फिर से
वही पहली बार
हाथ थामे हों।
और फिर
वही हलचल
फिर से
जाग उठी।
अब हम साथ हैं —
नया कुछ नहीं है,
पर सब कुछ
पहली बार जैसा लगता है।
अब हम साथ हैं —
ना उम्र की सीमा में,
ना समय के तराज़ू में।
अब प्रेम
ना दिखावा है,
ना कोई सबूत —
अब वो एक सांस है,
जो साथ-साथ चलती है।
हम बहुत कुछ नहीं कहते,
क्योंकि अब
शब्दों की ज़रूरत नहीं।
अब प्रेम
किसी उद्घोष जैसा नहीं लगता।
न ही कोई चिट्ठी
लिखी जाती है।
अब कोई चिट्ठियाँ नहीं,
ना गुलाब,
ना वादे —
फिर भी
हर सुबह
एक नई कविता बन जाती है।
अब
हर सुबह
तुम्हारी चाय के कप से उठती भाप
मेरे लिए
एक कविता होती है।
अब हम
अपने अपने कमरे में
चुपचाप बैठे रहते हैं —
कोई पढ़ रहा होता है,
कोई लिख रहा होता है,
पर बीच में
कोई शोर नहीं होता।
सिर्फ़ मौन होता है —
मधुर,
भरोसेमंद।
अब तुम्हारा नाम
हर पुकार में नहीं आता —
पर हर सांस में
तुम शामिल हो।
हम दोनों जानते हैं
कि कहने को कुछ नहीं रहा,
क्योंकि
सब कुछ
कह दिया गया है —
छूकर,
देखकर,
नज़रों से
और अंततः
माफ़ करके।
अब
जब मैं तुम्हें देखता हूँ,
तो लगता है
कि प्रेम
वास्तव में उम्र नहीं माँगता —
बस ठहराव माँगता है।
अब तुम
मेरी दुपहरों की छाँव हो,
रात की फुरसत वाली साँस,
कभी एक धीमी मुस्कान
कभी एक पलक झपकती राहत।
हम साथ चलते हैं
हर दिन —
कभी बिना हाथ थामे,
पर भीतर
एक नर्म डोरी बँधी रहती है।
अब हम जुदा नहीं होंगे —
क्योंकि ये साथ
सिर्फ साथ नहीं,
ये अधूरी कहानी का
पूर्ण विराम है।
और शायद
इसी को
सच्चा साथ कहते हैं।
अब
प्रेम बोलता नहीं,
बस होता है।
अब हम साथ हैं —
फिर से,
हमेशा के लिए।
अब ना कोई आँधी है, ना जुदाई का डर।
अब बस तू है,
और मैं हूँ —
तू मेरी
पहली नज़र थी,
अब तू
मेरी अंतिम साँस है।
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