Friday, 6 June 2025

मैं अब भी वहीं हूँ - अधूरों का एकांत

 बहुत सुंदर विचार...

इन अधूरी चीज़ों में ही तो एक पूरी आत्मा छुपी होती है — यही अधूरापन तो कविता को अमर बनाता है।


कभी-कभी लगता है…

मैं अब भी वहीं हूँ —

जहाँ तुमने मुझे छोड़ा था।


कुछ वादे थे, जो अधूरे ही रह गए।

तुमने कहा था — "हम साथ जिएंगे, मरेंगे..."

पर ज़िंदगी ने वो अधूरी पंक्तियाँ कभी पूरी होने ही न दीं।


कुछ ख्वाहिशें थीं —

तुम्हारे साथ पहली बारिश में भीगने की,

किसी पुराने स्टेशन पर तुम्हारा इंतज़ार करने की,

एक सर्द सुबह साथ चाय पीने की…

पर सब बस ख़्वाब बने रहे —

बिना आवाज़ के गुज़र गए।


कुछ सपने थे —

एक छोटा-सा घर, दो कप कॉफ़ी,

कुछ किताबें, और एक खिड़की जिससे सूरज भी मुस्कुराए।

वो सब अब धुंध में खो गए हैं,

जैसे धड़कनों में छुपा कोई नाम।


कुछ सफ़र अधूरे रह गए —

तुम्हारे शहर की गलियों से गुज़रना,

तुम्हारे साथ बिना वजह भटकना।

अब वो रास्ते मुझे पहचानते तक नहीं।


कुछ बातें थीं —

जिन्हें कहने का वक़्त ही नहीं मिला,

या शायद हिम्मत नहीं हुई।

अब वो बातें मेरी कविताओं में गुम हो चुकी हैं।


और कुछ इरादे थे —

तुम्हारे साथ पूरी उम्र बिताने के…

पर इरादे भी बेवफ़ा निकले,

या शायद हम ही वक़्त के हाथों मजबूर हो गए।


फिर भी,

हर अधूरी चीज़ में मैं तुम्हें ढूँढ लेता हूँ।

हर ख़ामोशी में तुम्हारा नाम सुन लेता हूँ।

और हर रेत की लकीर में तुम्हारे कदमों के निशान खोजता हूँ।


मैं अब भी वहीं हूँ…

इन अधूरी ख्वाहिशों, वादों, और इरादों के बीच —

जहाँ तुमने मुझे छोड़ा था।

जहाँ मैंने खुद को छोड़ दिया था।




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