Monday, 9 June 2025

जब क्षण, शून्य और शाश्वत मिले - एक प्रेम की तीन ऋतुएँ

I. बिछोह की बाँहों में

कुछ नहीं टूटा था,
फिर भी
सब कुछ छिटक गया था —
जैसे रेखाएँ
अपनी भूमि से बिछड़ जाएँ।

हम दो किनारे बन गए थे
एक ही जल की पीड़ा में,
पर तरंगें
मिल नहीं सकीं।

हर बीते क्षण ने
तुम्हारे नाम की चुप्पी ओढ़ ली,
और मैं
हर दिन की सूरत में
तुम्हारी परछाईं ढूँढता रहा।

संयोग की कोई चाबी
उस दरवाज़े में नहीं थी,
जिसे हम दोनों
भीतर से बंद कर आए थे।


II. लौटते क़दमों की मौन पुकार

और फिर —
किसी ऋतु की तरह
तुम लौटे,
बिना आहट के।

वो क्षण नहीं बोला,
पर भीतर कुछ
नर्म-सा बह निकला।

न आँखें टलीं,
न शब्द गिरे,
बस कुछ सांसें
आमने-सामने टिकी रहीं।

कभी-कभी
पुनर्मिलन कोई उत्सव नहीं होता,
बस एक सादगी होती है —
जो कहती है:
"अब तू है,
और मैं,
फिर से पास हूँ।"

वक्त, उस शाम
घड़ी से उतर कर
हाथों की गर्मी में आ गया।


III. होने की स्वीकृति

अब न कोई छूने की चाह,
न पुकार का आग्रह।
तुम वहीं हो —
जहाँ मेरी ख़ामोशियाँ
घर करती हैं।

प्रेम अब कोई संज्ञा नहीं —
बस एक सत्व है,
जो हर साँस में
स्वाभाविक रूप से बहता है।

हम चलते हैं साथ
पर गिनती नहीं करते —
क्योंकि अब
हर दिशा में तुम हो।

तुम्हारे होने की आदत
अब दर्पणों में नहीं दिखती,
पर खिड़की से आती धूप
तुम्हारी उपस्थिति को
गुनगुना जाती है।

अब शब्द नहीं भरते
हमारे बीच का आकाश,
अब मौन ही
सबसे साफ़ भाषा है।


अंतिम स्पर्श

ये प्रेम
अब तलाश नहीं,
अब कोई सिद्धि नहीं —
ये वो सादगी है
जो झील-सी गहरी
और शांत है।

जहाँ न कोई आरंभ है,
न कोई विराम —
बस एक "हम" है,
जो बोलता नहीं,
पर कभी चुप भी नहीं रहता।



No comments:

Post a Comment