पीकर मय तेरी आँखों से, मैं झूमा यूँ मतवाला सा,
तेरी आँखों के मय से क्यूँ आया नशा मधुशाला सा।
तेरी आँखों में कैसा जादू, कैसा रूहानी पैग़ाम दिखा ,
कि हर दीदार लगे ख़्वाबों के मिशाला सा।
ना साक़ी, ना जाम मिला, ना बैठा मैं महफ़िल में,
फिर भी दिल ने पी डाला हर जाम तेरी मज़राला सा।
तेरी पलकें जब झुकती हैं, लगता है जैसे पर्दा हो,
इक दरवाज़ा खुलता है तब, अंदर कोई शिवाला सा।
तेरा देखना, ठहर जाना, फिर नज़रों का कुछ कहना,
इन लम्हों में कुछ है जैसे, कुछ अधूरा अफ़साना सा।
तेरे नयन तो शीशे जैसे, हर ज़ख़्म को दिखला देते,
मैं चुप था फिर भी उभर गया, दर्द मेरा उजियाला सा।
तू सामने हो, और न पीऊँ, ये मुमकिन हो सकता क्या?
तेरी आँखों का नशा है कुछ रिंदों की मिसआला सा।
अब और कहाँ मैं जाऊँगा, अब तुझसे ही वाबस्ता हूँ,
तेरी नज़रें हैं मेरी मंज़िल, मेरा हर इक हवाला सा।
‘प्रशांत’ अब तो पीता है वो आँखों से ही सारा दर्द,
इक नज़्म की तरह बहता है हर अश्क भी रिसाला सा।
No comments:
Post a Comment