Friday, 6 June 2025

एक खत तुम्हारे नाम

प्रिय तुम,


कितना कुछ कहना था,

पर वक़्त हमेशा दो क़दम आगे चलता रहा।

आज जब सब कुछ थम-सा गया है,

तुम्हारी यादें फिर उसी मोड़ पर ले आईं — जहाँ मैं रुका रह गया था।


तुम्हारे जाने के बाद,

मैंने हँसना नहीं छोड़ा… पर वो हँसी अपनी सी नहीं थी।

मैंने जीना नहीं छोड़ा… पर वो ज़िंदगी सिर्फ़ चल रही थी, बह नहीं रही थी।

और सच कहूँ तो, मैंने तुम्हें भूलना चाहा…

पर हर भूलने की कोशिश, तुम्हें और गहराई से याद करने की वजह बन गई।


तुमसे कुछ शिकवे हैं, शायद खुद से भी…

कि क्यों हम दोनों अपने हिस्से की चुप्पियों को शब्द नहीं दे पाए।

क्यों नहीं कह पाए कि हमें बस “साथ रहना है”,

बिना वजह, बिना शर्त, बिना सवाल।


अब जब तुम्हें लिख रहा हूँ,

तो कोई उम्मीद नहीं बची — बस एक आदत है,

तुमसे जुड़ी हर चीज़ को समेटने की…

शायद ये आखिरी चिट्ठी है,

या शायद पहला क़दम… खुद तक लौटने का।


तुम्हारा ही,

जो कभी पूरी तरह तुम्हारा हो न सका।




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