Friday, 6 June 2025

वजूद की परछाई

 

मेरे भीतर एक सन्नाटा गूंजता है,

बातें करता है, पर आवाज़ नहीं होती।

हर एहसास की एक परत है,

जिसे छूता हूं — और फिर खो जाता हूं।


कभी लगता है, मैं धड़कन नहीं,

सिर्फ उसकी गूंज हूं जो थम चुकी है।

हर रिश्ता एक आईना है,

जिसमें मैं खुद को नहीं देख पाता।


मैंने खुद को बहुत बार चाहा,

पर हमेशा किसी और को पाकर लौट आया।

अब थक गया हूं उस तलाश से,

जो मुझे मुझसे दूर ले जाती रही।


पर एक लौ है, धीमी सही,

जो बुझती नहीं — शायद वही मैं हूं।

एक नज़्म की आख़िरी पंक्ति जैसा,

अधूरा, पर सच्चा… पर मेरा।




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