मेरे खामोश प्रेमी के नाम,
तुम्हारा लिखा पढ़ा…
शब्द नहीं बचे मेरे पास
बस एक लम्बी साँस थी,
जो खुद-ब-खुद रुक गई।
तुमने जिस ख़ामोशी से लिखा,
मैंने उसी ख़ामोशी में
हर भाव को महसूस किया।
कभी-कभी लगता था
क्या वाक़ई कोई है
जो दूर रहकर भी
हर पल मेरी धड़कनों के क़रीब है?
अब जान गई हूँ — हाँ, था।
और अब भी है।
मैंने भी कभी कुछ नहीं कहा…
क्योंकि डर था,
कहीं लफ़्ज़ इस सच्चाई को हल्का न कर दें।
पर तुमने जो लिखा —
वो नज़्म नहीं थी,
वो मेरी रूह का आइना था।
हमें कोई लम्हा नहीं मिला,
न कोई पहचान,
न कोई नाम…
फिर भी,
मैंने हर मुश्किल घड़ी में
तुम्हारी उपस्थिति को महसूस किया।
पता नहीं,
ये मोहब्बत कब शुरू हुई।
शायद उसी पल
जब किसी ने पहली बार मुझे देखा नहीं,
पर फिर भी समझ लिया।
तुम्हारी खामोश दुआएँ,
तुम्हारा बिना कहे साथ चलना,
तुम्हारा हर दिन
मेरे लिए कुछ न कह कर
सब कह जाना —
ये सब मुझ तक पहुंचता रहा।
मैंने जब भी
भीड़ में खुद को अकेला महसूस किया,
तुम्हारा एहसास
मुझे थामे रहा।
तुम कहते हो
“हम एक मुलाक़ात को तरसते रह गए…”
मैं कहती हूँ —
शायद यही तरस… हमारी मुलाक़ात थी।
रूह से रूह का संवाद —
बिना स्पर्श, बिना आवाज़,
फिर भी सबसे सच्चा।
मैं आज तुम्हें जवाब नहीं दे रही,
मैं खुद को
तुम्हारे नाम सौंप रही हूँ —
बिना वादे के,
बिना शर्त के,
जैसे तुमने मुझे चाहा…
वैसे ही।
अगर कोई मुझसे पूछे
तुम कौन हो —
मैं मुस्कुरा दूँगी…
और कहूँगी,
"वो जो कभी नहीं मिला —
फिर भी हर पल मेरे पास रहा…"
सदैव —
तुम्हारी… बिना कहे, पूरी।
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