कॉलेज का
वो पहला दिन था,
क्लास में
हलचल बहुत थी,
नए चेहरे,
नई आवाज़ें,
नई साँसों की सरगोशियाँ।
मैं
धीरे से भीतर आया,
बेंचें भरी थीं,
मन खाली था।
तभी…
एक नज़्म-सी
नज़र आई —
मुझे देखते ही
मुस्कुराई
जैसे कोई
पहचान हो पहले से।
वो मुस्कान
शब्द नहीं थे ,
फिर भी
वो कुछ कह गई —
और मैं
उस कहे को
समझ नहीं पाया।
शाम हुई,
नींद नहीं।
रात
उस मुस्कान में उलझ गई।
तब जाना —
ये कुछ और था।
कुछ ऐसा
जो एक बार में
दिल में घर कर जाए।
अब
हर सुबह
उसकी आँखों को
ढूँढती थी मेरी नज़र,
और
हर मोड़ पर
मेरे लिए ठहरी थी
उसकी झिझकती पलकें।
लाइब्रेरी की चुप्पी में
हमारे दिलों की धड़कनें
बातें करती थीं।
गलियारों में
छुप-छुप के मिलना,
कभी किताब देना,
कभी सिर्फ देखना,
बस…
इतना ही बहुत था।
फिर
कभी अल्फ़ाज़ छूने लगे,
कभी उंगलियाँ,
कभी होंठ।
चिट्ठियाँ चलती रहीं —
काग़ज़ पर
धड़कनों की स्याही।
पर फिर
एक आँधी आई —
अचानक,
बिना चेतावनी।
हम बिखर गए,
जैसे ख्वाब
जागने से टूटते हैं।
ना विदा,
ना वादा —
बस एक सन्नाटा।
वक़्त
धीरे-धीरे बीतता गया,
और हम
इतने दूर हो गए
कि पता भी खो गया।
दुनिया बस गई,
रास्ते बदल गए,
पर दिल…
वहीं अटका रहा।
मैं
तलाशता रहा उसे
हर चेहरे में,
हर भीड़ में।
चार दशक से ज़्यादा बीत गए।
फिर वो एक दिन आया…
जब कहीं से
उसका नाम झलक गया।
मैंने लिखा —
डरते हुए,
उम्मीद के बिना।
और फिर —
जवाब आया।
हाथ काँपे,
पर दिल
मुस्कुरा उठा।
हम फिर मिले —
बिल्कुल वैसे ही
जैसे बरसात
किसी सूखे पत्ते पर
पहली बूँद बनकर गिरे।
शिकवे थे,
आँखें नम थीं,
पर
प्यार अब भी वहीं था —
बिलकुल ताज़ा,
बिलकुल पूरा।
वो नज़रों की प्यास
फिर लौट आई,
वो चुपचाप छू जाना
फिर जाग उठा।
अब हम साथ हैं —
फिर से,
हमेशा के लिए।
अब ना कोई आँधी है,
ना जुदाई का डर।
अब बस तू है,
और मैं हूँ —
जैसे पहली नज़र,
जैसे अंतिम साँस।
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