(तीनों भागों को एकसाथ मिलाकर एक प्रवाही कविता के रूप में प्रस्तुत)
वादा तो नहीं था
ऐसा कोई
ज़िन्दगी से
वादा तो नहीं था,
तेरे बिना
जीने का
इरादा नहीं था।
पर तू गया
छोड़ के
कुछ कहे बिन,
सांसें रहीं
पर दिल में
वो नशा नहीं था।
हर सुबह
बेमानी सी
लगती रही,
चाय में भी
तेरा नाम
घुलता रहा।
दीवारें अब भी
तेरी परछाईं
पहनती हैं,
रात की चुप्पी
तेरी बात
कहती है।
फूल खिले
मगर रंग
छिपाए हुए,
तेरे जाने के बाद
सुगंध भी
थकी हुई सी लगी।
जिस मोड़ पर
तू साथ
छोड़ गया,
वहीं से
रास्ते भी
आगे बढ़ना
भूल गए।
तेरी याद ने
जो खालीपन दिया,
वहीं से
मैंने जीना
सीखा धीरे-धीरे।
अब मौसम
तेरे बिना
बदलते हैं—
पर हर एक में
तेरी परत
रह जाती है।
(सावन की भीगी साँस)
वो पहली बारिश
तेरे संग भीगी थी,
अब बरसात
भीतर की सूखी
नदी सी लगती है।
(पतझड़ की आह)
वादे गिरे
पत्तों की तरह,
हर शाख
तेरी याद
झरती रही।
(सर्दियों की चुप्पी)
धुंध में
तेरी आँखें
ढूँढता हूँ,
पर उँगलियाँ
तेरी गर्मी
पकड़ नहीं पातीं।
(वसंत की आशा)
तेरे संग जो
फूल खिले थे,
तेरे बिना
पर भी
सुगंध तुझसे
बात करती है।
(गर्मियों की तन्हाई)
धूप में
तेरी छाँव
नज़र नहीं आई,
पंखा चलता रहा
जैसे तेरी साँसें
रुकी न हों।
(रात की रहमत)
चाँद
तेरा चेहरा
छुपा के रखता है,
तारे
तेरे गीत
गाते हैं अब भी।
(एक खामोश सवाल)
मैंने कभी
तुझसे कुछ
पूछा नहीं,
बस हर मोड़ पर
तेरे कदमों की
आहट
ढूँढता रहा।
(एक स्वीकार)
अब भी
तेरे बिना हूँ,
पर अधूरा
नहीं हूँ।
तेरी कमी
मुझे
पूरा कर गई।
(अंतिम लौ)
तेरे नाम की
राख में
अब रौशनी है,
तेरा ना होना
एक उपस्थिति
बन गया है।
(प्रेम का पुनर्जन्म)
अब प्रेम
चेहरों में नहीं,
क्षणों की
गहराई में
बसता है।
(अंतिम उत्तर)
तेरे जाने से
ज़िन्दगी रुकी नहीं,
अब तेरी याद
मेरा पता बन गई है।
(अंतिम वादा)
कभी फिर
किसी जन्म में
मिलना हो तो,
शब्दों से नहीं,
ख़ामोशी से
पहचान लेना...
मैं वहीं मिलूँगा
जहाँ तेरे बिना
जीने का
इरादा नहीं था।
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