फिर…
एक लंबी साँस के बाद,
तुमने मेरी ओर
थोड़ा और झुककर देखा,
जैसे कह रही हो —
अब कहो।
और मेरी जुबाँ —
जो अब तक
नज़रों की प्यास के पीछे
छिपी हुई थी,
धीरे-से
काँप उठी।
"तुम लौट आए हो…"
बस इतना ही निकला।
पर उसमें
वर्षों की तड़प,
रातों की सिसकी,
अनकहे ख्वाब
सब समा गए।
तुम मुस्काईं…
वो मुस्कान —
ना क्षमा थी,
ना प्रश्न,
बस मान्यता थी —
कि प्रेम बचा रहा।
मैंने कहा नहीं,
पर मेरी आँखों ने
पकड़ लिया
तुम्हारे मौन का अर्थ।
और तुम्हारी पलकें
झुक गईं —
शायद मेरी धड़कन सुनने।
तुमने कुछ नहीं पूछा,
पर सब समझ लिया मैंने कुछ नहीं कहा पर सब कह दिया।
फिर एक क्षण आया —
जब न शब्द बोले,
न नज़रें बोलीं
पर दो मौन
एक साथ
गूंज बन गए।
जैसे बरसों की दूरी
एक लहर में
पिघल गई।
जैसे दो अधूरी कविताएँ
एक छंद में
पूरी हो गईं।
हम दोनों वहीं थे —
बिना किसी वादा,
बिना किसी अफ़सोस,
सिर्फ़ उसी पल में
पूर्ण।
तुमने मेरी उंगलियाँ
धीरे से थामीं,
जैसे कह रही हो —
अब जुदाई की ज़रूरत नहीं।
और मैं…
बस देखता रहा तुम्हें,
क्योंकि अब
शब्दों की नहीं,
साथ की ज़रूरत थी।
और इस तरह
दो मौन मिले…
और प्रेम ने
पहली बार
साँस ली।
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