जन्मों के फासले थे
जब हम
जुदा हुए थे।
वक़्त ठहर गया था
कहीं बीच में —
तेरे बिना
मैं अधूरा था,
तू भी शायद
कुछ कम थी।
आज जब
तुम फिर से
मेरे सामने हो,
तो दिल कहता है —
ये चमत्कार है,
या अधूरी प्रार्थना
पूरी हुई है।
पर जुबाँ…
ख़ामोश है।
जैसे शब्द
सहमे हुए हों,
या रुक गए हों
आँखों की दहलीज़ पर आंसू बन कर
शायद इंतज़ार है —
इन नज़रों की भूख
मिटने का।
वो भूख
जो बरसों से
बस एक छवि की
एक झलक को
तरस रही थी।
अब जब तुम
यहीं हो,
इतनी पास कि
साँसों की हलचल
महसूस हो सके,
तो मेरी आँखें
तुम्हें
अपलक देखे जा रही हैं।
जैसे हर पल
जुदाई के
हिसाब में
काट रही हों
नज़रों की गिनती।
तुम्हारी हर रेखा,
हर मुस्कान,
हर चुप्पी —
मेरी नज़रों की
प्यास बन चुकी है।
शब्द पीछे हट गए हैं,
क्योंकि आँखों में
अधूरी कविताएँ
पूरा होना चाहती हैं।
जब ये भूख
थोड़ी भर जाएगी —
जब ये नज़रे
थोड़ी तृप्त हो जाएँगी —
तब शायद
जुबाँ भी बोलेगी।
तब शायद
मैं कह पाऊँगा —
कैसे एक उम्र
तेरे बिना बीती,
कैसे हर मोड़ पर
तेरे नाम की
परछाई मिली।
तब तक
बस रहने दो —
इस खामोशी को
मिलने दो
तेरे मौन से।
क्योंकि कुछ प्रेम
शब्दों से नहीं,
सिर्फ़ नज़रों से
पूरा होता है।
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