पीकर मय तेरी आँखों से
मैं झूमा यूँ मतवाला सा,
हर कतरा जैसे कहता था—
"ये इश्क़ है, मधुशाला सा।"
ना जाम था, ना साक़ी थी,
ना छलके प्याले हाथों में,
बस एक नज़र थी तेरी जो
डुबो गई मुझे उस हाले में।
तेरी आँखों की गहराइयों से
जुगनू सी रोशन होती ये रातें ,
उन रातों में फिर रोशन होती बस प्यार मोहब्बत की बातें
तेरी ये दो झुकती पलकें ,
जैसे दर हों किसी मधुशाला का
सज़दे में सर झुक जाता है जब नाम लूँ तेरी हाला का
तेरी आँखों की उस भाषा में
जैसे कहानी कोई अधूरी थी,
जो मेरे अधरों से पहले
तेरी नज़रों ने की पूरी थी।
हर झलक, जैसे शबनम की
बूँद किसी सूखी पीपल पर,
हर दीदार में बहती थी
मेरे मन की अंतरधार।
पीता गया वो जाम मैं
बिन हिचकी, बिन कोई सवाल,
मगर हर घूँट में जागा
इक मीठा, तन्हा सा ख्याल।
कहाँ से लाती है तू ये
ऐसी मय, जो मदहोश करे?
जिसमें डूबा तो दिल बोले—
"अब होश रहे तो क्या करे?"
ना साक़ी, ना पैमाना
फिर भी दिल का हाल बदलता,
तेरे नयन से हर पल
इश्क़ नया सा उतरता।
कभी वो मय थी रूमानी,
कभी वो लगती थी रुहानि,
कभी छलकती दर्द भरी,
कभी जैसे प्रीत पुरानी।
मैं पूछूँ अब खुद से ही—
क्या ये जादू था तेरा या
तेरी निगाहों का असर था
या मेरा ही दिल मतवाला था?
जो भी था, सच ये है बस—
जब भी तेरे नैनों को देखा,
लगा जैसे फिर खुली कोई
खामोश, पुरानी मधुशाला सा।
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