Wednesday, 11 June 2025

हम धीरे से कहेंगे


अगर कोई ज़ोर देकर पूछेगा

हमारी मोहब्बत की कहानी,

हम धीरे से कहेंगे —

एक मुलाक़ात को तरस गए।


न आँखों ने देखा

न हाथों ने छूआ,

मगर फिर भी

हम बस उसी के हो गए।


वो धूप में साया था

और चाँदनी में ठंढक

हर मौसम में बस

उसी की कमी महसूस हुई।


शब्द कम थे हमारे पास,

ख़ामोशी ही पैग़ाम बनी,

वो जो लबों से न निकला

वही मोहब्बत बन गई।


वो इक लम्हा,

जो कभी आया ही नहीं,

सालों से दिल के

क़रीब बैठा है।


हम राहों में खड़े रहे,

वो वक़्त की तरह गुज़र गया,

हमने बस पलकों में

उसका इंतज़ार सँजो रखा है 


कभी बारिश की बूँदों में,

कभी धड़कनों की धुन में,

दिल ने हर बार बस

उसी को पुकारा।


लोग कहते हैं —

मिलने से होती है मोहब्बत,

हमने बिछड़ के

इश्क़ को महसूस किया।


हर ख़्वाब उसी से शुरू हुआ,

हर दुआ उसी पे ख़त्म,

वो जो था ही नहीं पास

उसी में पूरी ज़िंदगी बस गई 


कभी उसका नाम नहीं लिया 

कभी छुआ नहीं उसका साया,

पर फिर भी

हर साँस उसी के नाम हो गई।


हम पूछते रहे ख़ुद से —

क्या यही मोहब्बत है?

और जवाब में

बस उसकी यादें आती रहीं।


ज़माना कहे या जो भी समझे,

हम तो आज भी

उस एक मुलाक़ात को

ज़िंदगी समझे बैठे हैं।


अगर कोई ज़ोर देकर पूछेगा

हमारी मोहब्बत की कहानी,

हम फिर भी धीरे से कहेंगे —

एक मुलाक़ात को तरस गए…



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अगर आप चाहें, तो इस कविता को संगीतबद्ध या ग़ज़ल के रूप में भी ढाला जा सकता है।

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