पीकर मय तेरी आँखों से, झूमा दिल मतवाला सा,
हर साज़ बना इक ख़्वाब तेरा, हर साज़ मधुशाला सा।
तेरी नज़रों में जो देखा, वो रौशन इक आलम था,
हर मंज़र में तू ही उभरा, हर रंग तेरी जाला सा।
ना जाम मिला, ना साक़ी था, ना रिंदों की थी कोई बात,
फिर भी हर पल भीगा मन, तेरी नज़र का प्याला सा।
तेरी पलकें जब झुकती हैं, शामें गहरी हो जातीं,
जैसे खुला हो चुपके से, मन के भीतर ताला सा।
तेरा रुकना, फिर मुस्काना, वो नज़रों से कुछ कहना,
लगता है इन लम्हों में है, इक रहस्य का हाला सा।
तेरे नयन हैं आईना से, सच्चाई को उजागर करें,
मैं चुप भी रहूँ तो भी उभरे, हर ज़ख़्म का उजाला सा।
तू पास हो और ना पीऊँ, ये कैसे हो सकता है,
तेरी आँखों का नशा है, रिंदों की मिसआला सा।
अब और कहाँ ठिकाना हो, अब तुझसे ही रस्ता है,
तेरी नज़रें बसती हैं अब, हर ख्वाब के हवाला सा।
'प्रशांत' अब वो दर्द भी पीता, तेरी नज़रों से चुपचाप,
अश्क बहें तो लगते हैं, नज़्मों का रिसाला सा।
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