जुदाई के दिनों में — हर चीज़ तू बन गई है,
तेरे बिना दिन चलता है,
पर जैसे वक़्त चल नहीं रहा — बस टिक-टिक कर रहा है।
सुबह की धूप अब गर्म नहीं लगती,
क्योंकि उसमें तेरी मुस्कान की नरमी नहीं है।
और शामें...
वो बस अंधेरे के इंतज़ार में बीत जाती हैं।
मैं हर रोज़ तुझे लिखता हूँ —
कभी पत्तियों पर,
कभी चाय के कप की भाप में,
और कभी अपनी हथेली की लकीरों में ढूँढता हूँ तेरा नाम।
तेरे जाने के बाद…
खामोशियाँ शोर करने लगी हैं।
तेरे बिना हर बात अधूरी,
हर हँसी अधर में अटकी हुई।
तेरा नाम लोग अब भी लेते हैं,
पर मेरे लिए वो नाम नहीं —
इबादत है।
जैसे कोई अधूरी नमाज़,
जिसका सजदा अब भी तुझ पर अधूरा है।
कभी-कभी आँखें भर आती हैं,
बिना किसी वजह के —
पर असल वजह तू होती है,
हर बार, हर बार।
तू पास नहीं,
पर हर जगह है —
उस गली में जहाँ तुझे पहली बार देखा,
उस गाने में जो तू गुनगुनाती थी,
उस खामोश रात में जो तेरे बिना और भी खामोश हो गई।
तू नहीं है,
फिर भी मेरी साँसों में चलती है,
तू नहीं है,
पर मेरी धड़कनों में बजती है।
जुदाई ने मुझे सिखा दिया है —
कि इश्क़ सिर्फ पास होने में नहीं,
बल्कि हर उस पल में है
जब कोई बहुत दूर होकर भी सबसे पास होता है।
तेरे बिना...
मैं अधूरा नहीं,
बस तेरे इंतज़ार में पूरा हो रहा हूँ।
हमेशा तेरा,
हर दूर लम्हे में भी तुझसे जुड़ा हुआ।
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