वो तो
बस एक तारीख़ थी,
हमारे मिलन की
बरसों बाद।
पर उससे पहले...
कितनी तारीख़ें थीं
जिनमें
मैंने तुम्हें ढूंढा था,
हर मोड़ पर,
हर ग़लियों में,
हर ख़ामोशी में।
कितनी दफ़ा
रातें यूँ कटीं
कि चाँद को तकता रहा
तेरा नाम
सांसों में रखता रहा।
तुम नहीं थीं...
पर तुम्हारी परछाइयाँ
हर जगह थीं।
कभी किसी किताब के पन्ने में,
कभी भीगी सी बारिश में,
कभी किसी पुराने गीत में,
कभी किसी अजनबी की हँसी में।
हर बार
जब भी लगा
अब मिल जाओगी,
कोई न कोई
बेवक़्त तहरीर
हमें फिर जुदा कर गई।
तुम तो थी
किसी और ही दुनिया में,
बेख़बर,
यह सोचकर कि
मैं दूर होना चाहता हूँ।
पर क्या जानो
कितनी बार
तुम्हें खोने के डर से
मैंने तुम्हें
ख़ुद से भी चुरा लिया।
वो जो
आख़िरी अल्फ़ाज़ थे
"अलविदा"...
वो मोहब्बत की
सबसे मजबूर चीख़ थी।
मैं डरता था —
कहीं मेरा नाम
तेरे होठों पर
तेरी नफ़रत का
तर्जुमा न बन जाए।
इसलिए चला गया...
तेरे नाम को
बदनामियों से बचा कर।
पर मेरी रूह
हर उस तारीख़ में अटकी रही
जहाँ मैंने
तेरे आने की उम्मीद बाँधी थी।
वो तारीख़ें...
जो कैलेंडर से कहीं भी नहीं जुड़ीं थीं
बस दिल के किसी कोने में
साँस लेती रहीं।
आज जब तुम लौटी,
तो मुस्कुरा कर बोली —
“तुम तो छोड़ गए थे मुझे…”
अब कौन समझाए तुम्हें,
कि मैं सिर्फ़ गया था
ताकि
तुम्हें तुम से बचा सकूँ
दुनिया की बदनामियों से
तुम्हें महफूज़ रख सकूं
शायद ये बात
तुम कभी समझ सको
मेरा तो हर कदम
आज भी
उसी राह में उठता है
जहाँ से तुम्हारे आने की
आहटें सुनाई देती है
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