Wednesday, 4 June 2025

पहली बार जब छुआ था

 

तेरे अधरों को
जब मेरे अधरों ने
पहली बार छुआ था,
पूरी कायनात में
जैसे हलचल सा हुआ था।

न कोई साज़ था,
न कोई आवाज़ थी,
फिर भी हवा में
इक मधुर सी राज़ थी।

साँसें थम सी गई थीं,
धड़कनें बोलने लगी थीं,
पलकों के कोनों में
रातें डोलने लगी थीं।

तेरे होंठों की
वो पहली नमी,
जैसे गुलाब पर
गिरी हो चाँदनी।

नज़दीकियाँ बढ़ीं
बिना कहे कोई बात,
लबों से लिखा
प्यार का पहला जज़्बात।

वो एक क्षण
था जैसे अमर,
उसके बाद
कुछ भी न था कमतर।

तेरा काँपना,
मेरा रुक जाना,
उस स्पर्श में
था समय का थम जाना।

हवा रुक गई,
चाँद मुस्काया,
तारों ने हमें
नीचे झुक कर निहारा।

उस एक चुंबन में
था सौ वादों का रंग,
बिना कहे
कह डाले सब संग।

तेरे होंठ
अब भी मेरे ख्वाबों में आते हैं,
और मेरी साँसें
हर बार उन्हें छूने को जाते हैं।

हर सुबह
तेरी यादों में भीगी लगती है,
और हर रात
तेरी खामोशी से जगी लगती है।

तू जब भी
पास आती है चुपचाप,
तेरे अधरों की गर्मी
भर देती है मुझे आप।

प्यार शब्दों से नहीं,
लबों से बयान होता है,
जहाँ चुम्बन हो सच्चा,
वहीं इश्क़ मुकम्मल होता है।

तेरे होंठ
अब भी वहीं हैं,
जहाँ पहली बार
मेरे होंठों से मिले थे—

और कायनात
अब भी उसी हलचल में है।


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