Tuesday 14 August 2012

गांव की अमराई

कुछ धूमिल सी

स्मृतियाँ शेष हैं

गांव के अमराई की

जेठ की

तपती दुपहरी में भी

कैसी शीतलता

भर देती

तन मन में

जाने कैसी चपलता

हमारा चंचल मन

कैसे माने

कोई बंधन

भोर होते ही

निकल पड़ते हम

टोलियों में

झुण्ड के झुण्ड

गिल्ली डंडा

जाने कितने

सामान लिए

फिर धुप चढ़े

या लू चले

परवाह किसे

बजे कितने

किसने क्या

फरमान दिए

अमराई भी बौरा जाती

देख देख

सबकी शैतानी

हल्ला गुल्ला होता खूब

जम कर होती मनमानी

कोई नाचता पेड़ों पर

या होती दौड़ मेड़ों पर

गिल्ली उछलती मीलों दूर

कूद के लाते सब लंगूर

गुलेल की सटीक चाल से

अम्बिया गिरती डाल से

रोटी खाते अचार से

छाछ पीते धार से

फिर खेलते आनी जानी

घोघो रानी कितना पानी

होड़ लगती हर बात पर

कौन लट्टू नचाये हाथ पर

कूद कूद के डाल पर

हँसते अपने हाल पर

फिर ढेर लगते पत्थर के

खेलते पिट्टो दम भर के

जाने कहाँ से ताकत आती

जो खाते वो पच जाती

सांझ होते भगदड़ मच जाती

घर घर से हांक जो आती

छोड़ के हम अमराई

घर लौटते सारे भाई

अब ना गांव है ना अमराई

शहर की भीड़ वहाँ तक आई

अब अमराई के नाम पर

वहाँ कुछ ठूंठ अवशेष है

हमारे बचपन की यादों का

अब वही भग्नावशेष है










1 comment:

  1. बहुत ही सुन्दर...यादों का झरोखा ...!!

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