Tuesday 21 August 2012

सत्य श्री साईं नाथ भगवान

अभी कुछ दिन हुए

शिरडी गया था

बाबा के दरबार में

लाखों भक्त वहाँ खड़े थे

मीलों की कतार में

पर कुछ भक्तों की पहुँच बहुत थी

धर्म के बाजार में

खनका के सिक्के सोने चांदी के

सीधे पहुँच गए वो

बाबा के दरबार में

तपती धुप में खड़े रहे

बाकी सारे भक्त

दर्शन के इंतज़ार में

बिकते देख दर्शन को

धर्म के बाजार में

वहीँ लिखी यह कविता

व्यवस्था के प्रतिकार में

आहत मन से करने गुहार

पहुंचा फिर बाबा के दरबार में

 
बाबा ----

तुम तो फकीर हो 

अपनी करतब में अमीर हो 

फिर क्यों 

धर्म के ठेकेदारों ने 

तुम्हें 

सोने चांदी से लाद दिया 

तुम 

कितने असहज दिखे 

स्वर्ण सिंहासन पर 

स्वर्ण मुकुट पहने हुए 

फिर 

क्यों नहीं 

तुमने फ़रियाद किया 

मैंने 

तुम्हें 

मुस्कुराते देखा है 

द्वारका माई में 

चावड़ी की परछाईं में 


पर वो मुस्कराहट 

नहीं दिखी मुझे 

स्वर सिंहासन पर बिराजे हुए 

स्वर्ण मुकुट छाजे हुए 

श्रद्धा भक्ति को 

अब 

तौल रहे सब 

सोने चांदी से 

तभी तो 

हुंडी में तुम्हारे 

खनक रहे हैं सिक्के 

सोने चांदी के 

पर 

इनको ये भान नहीं है 

कि 

तुमको इनका मान नहीं है 

तुम तो खुश होते हो 

उस भिक्षा से 

जो मेहनतकश लाता है 

अपनी इच्छा से 

जाने दो ये अज्ञानी हैं 

अपने धन के अभिमानी हैं 

हम भक्तों की आस 

तुम हो बाबा 

हम क्यों हो निराश 

जब तुम हो बाबा 

हम श्रद्धा सुमन अर्पित करते 

चरणों में तुम्हारे 

समर्पित रहते 

ना सोना है ना चांदी बाबा 

बस श्रद्धा हमारी पूंजी बाबा 

अपनी दया बनाये रखना 

हमको अपने शरणागत करना 

बस यही कामना हम भक्तों की 

धन के आसक्तों की 

चाल सफल होने ना पाये 

सोने चांदी की खनक में 

आशीष तुम्हारा बिक ना जाये 

जो कोई भक्त 

तुम्हारे दर पर आये 

कहीं कभी ठोकर ना खाए 

जो आये जैसे आये 

तुमसे वो सीधे मिल पाये 

तुम तो सबके हो बाबा 

बस ऐसे ही सबके रहना 

सब की विनती सुन सुन कर 

सबके दुःख हरते रहना 





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