Sunday 26 August 2012

क्या हुआ

क्या बताऊँ

क्या हुआ

खुद को ही ढूंढ रहा हूँ मैं

खुद में

जाने मैं कहाँ खो गया

खुद में

ख्वाहिशें औरों की

चाहतें औरों की

ख्वाब औरों की

पूरी की मैंने

पर

मुझे क्या मिला

मैं खो गया खुद में

अब क्या बताऊँ

क्या हुआ

जाने मैं कहाँ खो गया

औरों की

ख्वाहिशें पूरी करते करते

चाहतों का बोझ ढोते ढोते

ख़्वाबों की ताबीर भरते भरते

मैं

मैं कहाँ रहा

मैं खो गया

खुद में

अब ढूंढ रहा हूँ

खुद को

खुद में

जाने मैं कहाँ खो गया

खुद में

मिल जाऊं

मैं अगर खुद में

फिर

दो पल ज़िंदगी की

अपने नाम भी कर दूं

उस दो पल की जिंदगी को

बस अपने लिए जी लूं

फिर

मर सकूं इस सुकूं से

कि

जिसकी मौत हुई

वो मैं ही था

मेरा मैं कहीं

खोया नहीं था






2 comments:

  1. बहुधा ऐसा होता है, खो देते हैं हम अपने को
    औरों के हक रखते रखते.......... यह हूक बड़ी सजीव हुई है आपकी इन पंक्तियों में.. बहुत सुन्दर !!!

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  2. lajawab........speechless...one more touching poem....dil chu liya...ek bahut bada sach hai ye........hum kab jee paye apne liye..bas auro ke liye...dusro ke liye....

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