Sunday 5 August 2012

साम्प्रदायिकता का ज़हर

उनसे बड़ा दोस्ताना था

उनके घर हमारा आना जाना था

धर्म और मज़हब को कभी

हमने नहीं पहचाना था

सुकूं था कितना

दिल में मन में

सजती थी महफ़िल

दोनों घर आँगन में

तभी

कहीं से एक चिंगारी आई

जिसने सबकी नींद उड़ाई

धधक उठा सब आग में उसके

झुलस गया जो था भाग में जिसके

तबाही के इस मंज़र के पीछे

जाने मंसूबे थे किसके

मासूमों की बलि चढ़ा कर

क्या मिला यूँ बैर बढ़ा कर

साम्प्रदायिकता का ज़हर भी देखो

ढाया है क्या कहर भी देखो

अब तक सब भाई भाई थे

जो हिंदू मुस्लिम सिक्ख ईसाई थे

नफरत के इस आग में

जलकर रिश्ते सारे खाक हुए

मन्दिर मस्जिद और गुरुद्वारे

गुलशन गलियां घर चौबारे

जलकर सारे राख हुए

क्यूँ इन नंगे इरादों को

साम्प्रदायिकता की आग में

सुलगने दें

क्यूँ नफरत के पौधों को

दिल में अपने

उगने दें

ढूँढें हम उन चंद हाथों को

जो ये आग लगाते हैं

और इस आग में जाने

कितने घर जल जाते हैं

चुन चुन कर उन हाथों में

ज्ञान का दीप थमाना होगा

उन्होंने अपने घर फूकें हैं

उनको यह समझाना होगा

जो घर जले

उनमें उनके अपने थे

जो जल कर खाक हो गए

वो उनके सपने थे

फिर किसी बहकावे में आकर

क्यूँ अपना घर जलाए

अब अगर कोई बहकाए

सब उस से मिलकर टकराए

मनसूबे उनके चूर हो जायेंगे

वो कदम वापिस करने को

मजबूर हो जायेंगे




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