Friday 31 August 2012

बंदिशें

क्यूँ

हमारी चाहतें

बंदिशों का मोहताज़ होती हैं

सुना था

चाहतें

दिलों का सरताज होती हैं

फिर क्यों नहीं

उसे

बादशाहत का रूतबा मिलता है

आखिर क्यों

वो हरदम

ग़म में डूबा मिलता है

अगर

बंदिशें ही लगानी थीं

फिर

चाहतों को बनाया क्यूँ

लगाकर

इस पर बंदिशें

इसे नेमत में अपनी

गिनाया क्यूँ

ना होतीं चाहतें तो

ज़िन्दगी

कितनी आसां होती

ना किसी बात से

परेशां होती

न किसी बात पे

हैरां होती

चाहतें अगर बनायीं है

तो ए खुदाया

चाहा जिसको मैंने

उस से मुझको

क्यूँ नहीं मिलाया 

No comments:

Post a Comment