Monday, 30 June 2025

हमारे बीच सिर्फ वक़्त था - 1

(एक रूहानी प्रेम की अधूरी पूरी कहानी)


हम रोज़ मिलते थे —

ना जाने कैसे,

ना जाने कब से —

कभी कॉलेज की रंगीन भीड़ में

तुम यूँ मिलतीं

जैसे कोई सुकून भरी हवा

भीड़ को चीरती हुई

सिर्फ मुझे छू कर जाती हो।


कभी स्टेडियम की ऊँची सीढ़ियों पर,

जहाँ तुम्हारी चुप मुस्कान

मेरी जीत की सबसे बड़ी ट्रॉफी लगती।


कभी कॉलेज की कैंटीन में,

जहाँ भीड़ के शोर में भी

तुम्हारी नज़रें

मेरी कॉफी के कप से टकरा जातीं।


और सबसे ज़्यादा —

हम मिलते थे उस जगह

जहाँ सन्नाटा भी

मोहब्बत की आवाज़ बन जाता था…

लाइब्रेरी।



---


वहाँ हम घंटों साथ होते थे,

पर शब्दों की ज़रूरत नहीं पड़ती थी।

किताबें खुलती थीं,

पर हम तो बस एक-दूसरे की पलकों को पढ़ते थे।

बंद किताबों के बीच

तुम्हारी खुली आँखें

मुझसे कहानियाँ सुनती थीं।


कभी बुकशेल्फ के आर-पार से

तुम्हारी नज़रें मुझे ढूंढतीं,

तो मैं जानबूझकर

थोड़ा और वहीं रुक जाता —

कि वो खोज कभी खत्म न हो।


कभी आमने-सामने बैठ कर,

पन्ने पलटने का बहाना होता,

पर हम तो सिर्फ

एक-दूसरे के चेहरों के भाव पढ़ते थे।



---


जब हमें मौक़ा मिलता,

तो हम एकांत में

हाथों में हाथ डाले बैठ जाते —

घंटों,

बिना कोई घड़ी देखे,

बिना कोई बात किए।


तुम अपना सर

धीरे से मेरे कंधे पर टिका देतीं,

और मैं —

अपने हर स्पर्श से

तुम्हारी रूह को छूने की कोशिश करता।


तुम्हारी बंद आँखें

मेरे भीतर रोशनी भर देती थीं,

और मैं तुम्हारे हाथों की गर्मी से

अपने वजूद को जिंदा महसूस करता।



---


तुम मेरे लिए

कोई साधारण लड़की नहीं थीं…

तुम एक तोहफ़ा थीं —

वो भी खुदा की दस्तक के साथ मिला हुआ।


मैं तुम्हारे हर पल को

संभाल कर रखना चाहता था,

जैसे कोई ताज़ा ग़ज़ल

जिसके हर मिसरे को

सांसों में क़ैद कर लिया जाए।


पर किस्मत…

हमेशा इश्क़ से नफ़रत ही करती है शायद।



---


हम अलग हो गए…

बिना कहे, बिना रोके, बिना रोए।

न कोई अलविदा…

न कोई वादा।


मैं तुम्हें कुछ नहीं कह पाया,

सिर्फ चला गया —

शायद हमेशा के लिए।


और तुम…

यही सोचती रहीं कि

मैं तुम्हें छोड़ गया,

बिना कुछ कहे।



---


तुम्हारी गैर-मौजूदगी

एक भारी चुप्पी बन गई थी

मेरी हर साँस में।


ज़िन्दगी…

अब बस एक रुटीन बन गई थी —

चलते रहो,

पर अंदर कुछ भी न बचे।


मैं टूट गया था,

बार-बार —

पर हर बार तुम्हारी यादें

मुझे जोड़ती थीं,

अपने ही आँसुओं से गूंथ कर।



---


मैं तुम्हें ढूंढता रहा…

हर शहर में, हर मोड़ पर,

हर चेहरे में तुम्हारा अक्स टटोलता,

हर आवाज़ में

तुम्हारी वो धीमी मीठी बोली खोजता।


वक़्त बढ़ता गया…

उम्र अपने पन्ने पलटती गई,

पर मेरे दिल की किताब

अब भी उसी पृष्ठ पर अटकी थी —

जहाँ तुम मुस्कुरा कर

मेरे कंधे पर सर रखी थीं।



---


और फिर…

चौवालीस नहीं, पैंतालीस साल बाद —

तुम सामने आयीं।


मैंने तुम्हें देखा…

तुम अब भी वही थीं —

बस थोड़ी और शांत,

थोड़ी और गहराई लिए हुए।


तुम्हारी आँखें

अब भी वैसी ही थीं,

जैसे हर बात

बिना कहे कह देती थीं।


तुम्हारी मुस्कान

अब भी मेरी ही प्रतीक्षा कर रही थी,

वक़्त की धूल के नीचे

एक चमकती हुई चाह छुपाए।



---


हम मिले —

और कुछ भी नहीं बदला था हमारे बीच,

सिवाय उम्र के।


तुम्हारे पास अब बच्चे थे,

एक सुंदर ज़िन्दगी थी,

और मेरे पास…

बीते हुए पन्नों का ढेर,

पर हर पन्ने पर तुम्हारा नाम था।


जब हमारी नज़रें मिलीं,

वो पहला पल

फिर से जिंदा हो गया।


हमारी ज़ुबानें

पहले थमी रहीं,

फिर धीरे-धीरे

शिकायतों का सैलाब बहने लगा।


पर अंत में…

हम मुस्कराए —

और उस मुस्कान में

हर शिकायत पिघल गई।



---


अब हम साथ हैं,

शायद जिस्मों से नहीं,

पर रूह से —

एक-दूसरे के भीतर समाए हुए।



---


कुछ प्यार

वक़्त से नहीं डरते।

कुछ रिश्ते

अल्फ़ाज़ की ज़रूरत नहीं रखते।

और कुछ कहानियाँ —

अधूरी होते हुए भी

मुकम्मल होती हैं…

जैसे हमारी कहानी।



हमारे बीच सिर्फ वक़्त था

 

(एक रूहानी प्रेम की अधूरी पूरी कहानी)


हम रोज़ मिलते थे...

कभी कॉलेज की भीड़ में,

कभी स्टेडियम की सीढ़ियों पर,

कभी कैंटीन की चाय में,

तो कभी लाइब्रेरी की ख़ामोशी में।


हमारे बीच बहुत कुछ था,

बस लफ़्ज़ नहीं थे।


तुम मेरे साथ होतीं,

और मेरी सारी उलझनें

तुम्हारे कंधे पर सर रखने से

हल हो जाती थीं।


जब तुम अपना सर

मेरे कंधे पर रखतीं,

और आँखें मूँद लेतीं —

मैं तुम्हारे हाथों को छूकर

तुम्हें महसूस करता

अपनी धड़कनों की जगह।


लाइब्रेरी…

हमारी सबसे प्यारी जगह थी।

वहाँ जहाँ शब्दों की जगह

नज़रों की भाषा चलती थी,

जहाँ किताबों के पन्नों से ज़्यादा

तेरे चेहरे की रेखाओं को पढ़ा करता था।


कभी बुकशेल्फ के उस पार से,

कभी आमने-सामने की टेबल पर —

हम घंटों बैठे रहते,

ख़ामोशियाँ कहानियाँ सुनाती थीं,

और निगाहें

मोहब्बत के इक़रार करती थीं।


तुम्हारा होना

मेरे लिए उस तोहफ़े जैसा था

जो खुद खुदा ने मुझे भेजा हो।


मैं डरता था,

कहीं तुम मुझसे दूर न हो जाओ…

इसलिए हर रोज़

तुम्हें और भी गहराई से महसूस करता।


पर किस्मत को

हमारी ये मोहब्बत शायद मंज़ूर न थी।

हम अलग हो गए…

बिना अलविदा।


मैं तुम्हें कुछ कह नहीं पाया,

और तुम यही समझ बैठीं

कि मैं तुम्हें छोड़कर चला गया।


तुमसे अलग होकर

जैसे जान ही छूट गई हो मुझसे,

हर दिन…

बस एक खाली खोल बनकर जीता रहा।


कई बार टूट गया,

पर तुम्हारी याद ने

हर बार मुझे जोड़ दिया।


मैंने तुम्हें

हर गली, हर शहर, हर किताब में ढूँढा,

कभी किसी नाम में,

कभी किसी आवाज़ में।


साल दर साल बीतते गए,

उम्र का साया गहराता गया —

पर मेरा दिल

अब भी तुम्हारा ही पता पूछता रहा।


और फिर...

पैंतालीस साल बाद —

तुम मिलीं।


वक़्त ने चेहरे बदले थे,

पर तुम्हारी आँखें वैसी ही थीं,

तुम्हारी मुस्कान

अब भी मेरे नाम से ही खिलती थी।


मैं तुम्हें देखता रहा —

जैसे कल ही तो बिछड़े थे।


हम कुछ कह नहीं पाए,

सिर्फ देखते रहे —

वो सारी बातें आँखों में उतर आईं

जिन्हें कभी कहा नहीं गया था।


फिर जब जुबां खुली,

तो शिकायतें भी थीं…

और वो मासूम चाहत भी

जो अब भी अधूरी सी थी।


हमने वक़्त को दोषी ठहराया,

और नियति को स्वीकारा।



---


अब हम साथ हैं…

शायद जिस्मों से नहीं,

पर रूहों से —

हमेशा के लिए।


 कुछ रिश्ते

फासलों से नहीं टूटते,

और कुछ मोहब्बतें

उम्र से नहीं थमतीं।


हमारे बीच सिर्फ वक़्त था…

पर दिलों के बीच

कभी कोई दूरी नहीं थी।



Sunday, 29 June 2025

When Souls First Spoke

 

Where did you come from?
Softly, you slipped into my breath.
And where was I from?
Somehow, I stayed within your heart.

How did our hearts find each other?
This bond, unnamed —
Made all names seem so small.

I hadn’t said a word.
Only our eyes spoke,
And they said everything.

That very first meeting —
Time stood still.
You smiled once,
And I began to live.

You came like the wind,
But stayed as fragrance
In every breath I took.

I hadn’t woven dreams,
Nor made any promises,
Yet your eyes
Showed me my future.

Without words,
We invented a language —
Each silence
Turned into a vow.

Nights now belong to you.
Even the moon
Seems lost in you.
When stars fall,
It feels like
Another wish whispered your name.

I never thought
That souls could meet
Without a call,
Without a path.

Your arrival
Completed a verse
That lived half in me.

Our meeting —
As if a thirst,
Centuries old,
Was finally quenched,
Drop by tender drop.

You weren’t someone I sought,
And I wasn’t searching —
Yet somehow…
We met.

Now, every breath
Spells your name.
Now, every silence
Echoes your steps.

What is this love
That we never touched,
Yet it touched
Every leaf and root
Of who we are?

We said nothing…
Yet everything
Was spoken
And understood.


रूहों की पहली बात

 

कहाँ से आई तुम,
साँसों में यूँ उतर गई।
कहाँ से आए हम,
तेरी धड़कनों में ठहर गए।

कैसे मिल गए दिल हमारे,
बिना नाम के इस रिश्ते ने
हर नाम को बेमानी कर दिया।

हमने तो कुछ कहा भी नहीं था,
नज़रें ही थीं,
जो सब कुछ बयाँ कर गईं।

वो पहली मुलाक़ात,
जैसे वक़्त थम सा गया था।
तुमने मुस्कुरा के देखा,
और मैं जी उठा।

हवा की तरह आई थीं तुम,
पर सांसों में महक बनकर रह गईं।
एक झोंका भी अब
तुम्हारी याद लेकर आता है।

मैंने ना कोई ख्वाब बुना था,
ना कोई वादा किया था,
पर तेरी आँखों ने
मुझे मेरा भविष्य दिखा दिया।

शब्दों के बिना
हमने एक भाषा रच ली,
जिसमें हर खामोशी
इकरार बन गई।

रातें अब तेरे नाम की होती हैं,
चाँद भी तुझमें खोया लगता है।
तारे जब टूटते हैं,
तो लगता है —
कोई दुआ फिर से तेरे लिए माँगी गई है।

कभी सोचा नहीं था,
कि रूहें भी मिल सकती हैं
बिना पुकारे,
बिना रास्ता पूछे।

तेरा आना
जैसे मेरी अधूरी रचना
मुकम्मल हो गई।

हमारा मिलना
जैसे सदियों पुरानी कोई प्यास
आज बूंद-बूंद भर के
सराबोर हो गई।

ना तुम कहीं ढूँढी गई थीं,
ना मैं किसी तलाश में था —
फिर भी...
हम मिल गए।

अब जब भी साँस लेता हूँ,
तेरा नाम बुनता हूँ।
अब जब भी चुप होता हूँ,
तेरी आहट सुनता हूँ।

यह कैसी मोहब्बत है —
जिसे हमने छुआ नहीं,
पर उसने हमें
जड़ से पत्ता तक छू लिया।

हमने कुछ कहा भी नहीं था,
फिर भी सब कुछ
कह भी दिया,
समझ भी लिया।


क्यों नहीं बताया

(उसकी ओर सेबरसों बाद)

क्यों नहीं बताया
कि तुम जा रहे हो?
क्यों मेरी आँखों में
छोड़ गए वो सवाल
जिनका जवाब कभी लौटकर नहीं आया?

मैं सोचती रही
क्या मैंने कोई ग़लती की थी?
क्या तुम्हारा प्यार
सिर्फ़ कुछ दिनों का था?
या मैं ही सिर्फ़ खतों की आदत बनकर रह गई थी

पर आज
जब सुना
कि तुम मेरे खत
मंदिर के हवन में जलाकर रोए थे,
तो कुछ टूटा नहीं
बल्कि कुछ पूरा हुआ मेरे अंदर।

मेरे खत
जिन्हें मैंने
अपने रूमाल की तह में रखा था,
तेरे नाम से पहले चूमा था,
हर लफ्ज़ को
तेरे दिल की थकान का मरहम समझकर लिखा था
वो खत तुमने
राख बना दिए
पर मेरी मोहब्बत को कभी जलाया नहीं।

तुम जानते थे
दुनिया की नज़रों से
मुझे कैसे बचाना है,
पर तुम्हें नहीं पता था
कि मेरे लिए
तुम्हारे लिखे लफ्ज़ ही
मेरी दुनिया थे।

तुम्हारा हर "प्यारी",
हर "मेरी",
मेरे होने की तस्दीक़ थे।
तुम्हारे खत
मेरी साँसों का हिस्सा थे।

अब सोचती हूँ
उस शाम जब तुम मंदिर की सीढ़ियों पर थे,
मैं कहीं आसपास होती तो क्या करती?
शायद दौड़कर
तुमसे तुम्हारा वो आख़िरी खत छीन लेती।
कहती
"जला दो मुझे भी साथ में,
पर मेरी मोहब्बत को राख मत बनाओ…"

अब समझ में आया
कि तुम दूर इसलिए नहीं हुए
क्योंकि प्यार कम हो गया था,
बल्कि इसलिए
क्योंकि प्यार बेहिसाब था
और तुम्हें डर था
कि ये दुनिया मुझसे
वो सब छीन लेगी
जो सिर्फ़ तुम्हारा था।

पर सुनो
तुम मुझे तब भी नहीं समझ पाए।
मैं तुम्हारी हो चुकी थी
इस दुनिया से नहीं डरी थी,
मैं डरती थी सिर्फ़ तुम्हारी खामोशी से।

मैंने चाहा था
कि तुम हर तूफ़ान से पहले
मेरे कंधे पर सिर रखो
ना कि खुद को अकेला कर लो।

तुम्हारे जले हुए खत
अब मेरी आँखों में धुआँ बन गए हैं।
हर रात जब पलकें बंद करती हूँ,
तो वो राख
फिर से लफ्ज़ बन जाती है।

और एक सवाल
अब भी बिन जवाब है

"क्यों नहीं बताया... कि तुम जा रहे हो?"

तेरे खतों का अंतिम आलिंगन

 

वो पहली नज़र...
जैसे वक़्त ने रुककर हमें देखा हो,
तेरी आँखों में झाँकते ही
मैं खुद को खो बैठा था।

तेरी मुस्कान में
एक रूह की पुकार थी,
और मेरी चुप्पी में
तेरे नाम की दस्तक।

हम मिले
जैसे सदियों से बिछड़ी हुई दो रूहें
एक ही जिस्म की तलाश में भटक रही हों।

तेरा नाम...
अब मेरे नाम से पहले आता था,
और मेरी साँसों में
अब सिर्फ़ तेरी खुशबू बसती थी।

फिर शुरू हुआ
ख़तों का वो सिलसिला,
हर लफ्ज़ में तेरी सूरत,
हर हर्फ़  में तेरा अहसास।

तेरे खत
जैसे तेरे हाथों का स्पर्श,
जैसे तेरी साँसें काग़ज़ पर उतर आई हों।

मैं अपने खतों में
तुझे जी भर कर प्यार करता,
फिर अचानक डर जाता
दुनिया की नज़रें
कहीं तुझे छू लें।

हर इज़हार के बाद
मैं तुझसे हिफ़ाज़त माँगता,
तेरे लिए नहीं
अपने टूटते हुए दिल के लिए।

हम खत कभी
किताबों के पन्नों में छुपाते,
कभी चुपचाप एक-दूजे की हथेली में थमा देते,
और कभी बस नज़रों से कह देते
"पढ़ लेना... अकेले में।"

इन खतों ने
हमारी दुनिया को मायने दिया,
हमारे मिलन को मुकम्मल  
और हमारी मोहब्बत को एक नाम।

पर हर खूबसूरत चीज़ 
कभी कभी
वक़्त के दस्तावेज़ में मिट जाती है।
हम भी वैसे ही 
ख़ामोशी से दो अलग राहों पर मुड़ गए।

मैं तुझे बता सका
कि मैं जा रहा हूँ
और तू सोचती रही
कि मैं खामोश होकर
खुद को तुझसे जुदा कर गया।

पर सच्चाई ये थी
कि तेरे खतों में ही
मैं तुझे हर रात जीता रहा।

तेरा हर एक लफ्ज़
मेरे दिल की इबादत बन गया था,
और उन पन्नों को
मैं अपनी जान से ज़्यादा संभालता रहा।

फिर आई वो घड़ी
जब डर ने मोहब्बत को घेर लिया।
कहीं ये खत
किसी और की नज़रों में गए,
तो तू बदनाम हो जाएगी...
तेरा नाम
मेरे इश्क़ के बोझ से भी भारी लगने लगेगा।

फिर लिया मैंने
अपनी ज़िन्दगी का सबसे कठोर निर्णय।

तेरे तमाम खतों को
अपने सीने से लगाकर
एक शाम मंदिर की सीढ़ियों तक लेकर गया।

वहाँ हवन कुंड के सामने बैठा
तेरे लफ़्ज़ों को
अपने आंसुओं से धोता रहा।

हर खत को पढ़ा
मानो आखिरी बार
तेरी आवाज़ सुन रहा हूँ,
तेरे हाथों को
कागज़ की सिलवटों में छू रहा हूँ।

मैं ऐसे रोया
जैसे किसी ने
मेरी रूह से तुझे छीन लिया हो।

मंदिर की आरती चल रही थी,
पर मेरा रुदन 
आरती की घंटियों को चीर कर                                                                                                    आसमान को भेद रहा था 

और जब तेरा आख़िरी खत जला
तो मानो मेरी साँसें भी
जल कर राख बन गईं।

पुजारी भागते हुए आए,
मुझे थामकर
बरामदे में ले गए।
पानी पिलाया,
आँखों में देखा
और बिना कुछ पूछे
सब कुछ समझ गए।

उन्होंने कहा
जिसने ये खत लिखे हैं,
वो आज भी वहीं है
तेरे दिल में, तेरी धड़कन में।
तो क्यों इन राखों में
अपना इश्क़ जलाते हो?”

उनकी आँखों में
तुझसे फिर मिलने की दुआ थी,
उनकी बातों में
तेरा नाम फिर से जी उठा।

मैं स्तब्ध था,
भीगा हुआ, टूटा हुआ,
पर भीतर अँधेरे में कहीं
एक उजाला भी हुआ
कि 
तू तो आज भी वहीं है,
जहाँ हम पहली बार मिले थे
मेरे इंतज़ार में।

एक दिन मैं ज़रूर आऊंगा                                                                                                                तुझसे मिलने मेरी हमनफ़ज़                                                                                                              और फिर                                                                                                                                        हमें कोई जुदा नहीं कर सकेगा 


Friday, 27 June 2025

पहली नज़र का जादू - जवां दिलो की धड़कन

 "पहली नज़र का जादू"

 

वो दिन कुछ खास था हमारा,

जब चुपके से देखा था तेरा नज़ारा 

कॉलेज के उस भीगे मौसम में,

खिल उठी थी कोई पहली बहार सी मन में।

 

झुकी हुईं थीं पलकें तुम्हारी 

जैसे चाँदनी ओढ़े कोई खामोश कहकशां।

मैं भी ख़ामोश, तुम भी मौन,

मगर दिलों का शोर था बेजुबां।

 

नज़रें मिलीं... वक़्त थम गया,

हमारी रूहों का रंग जम गया।

ना कुछ कहा, ना कुछ सुना,

फिर भी सब कुछ कह गए हम।

 

धीरे-धीरे वक्त ने सीढ़ियाँ चढ़ीं,

हर मुलाकात हमें कुछ और करीब ले आई।

एक दिन, जब धड़कनों ने हामी भरी,

मैंने तेरे कांपते हाथों को थाम लिया था 

 

तू थमी थी, मैं भी रुका था,

जैसे सांसों में कुछ ठहर सा गया था।

तेरी पलकों की कम्पन में

मैंने खुद को बहकते देखा था।

 

मैंने तुम्हें अपनी बाँहों में लिया,

जैसे कोई अधूरी दुआ पूरी हो गई।

तुम मेरे सीने से लगकर

जैसे सदी भर की थकान भूल गई।

 

फिर मेरे होंठ तेरे कांपते लरज़ते होंठों से मिले,

और उस पल में पूरी कायनात सिमट आई।

धड़कनों का संगीत बज उठा,

और ख़ामोशी भी सरगम गाने लगी।  

 

साँसों ने साँसों को छुआ,

मन ने मन से बात की।

कोई अल्फ़ाज़ नहीं थे उस पल,

पर हर बात इबादत सी हो गई।

 

तभी कोई आहट हुई अचानक,

और हमारा मिलन वहीं ठहर गया।

मगर उस पल के जादू ने

हमें उम्र भर के लिए बाँध दिया।

 

फिर मुलाक़ातें सिलसिले में ढलने लगीं,

हर शाम हमें कुछ और पास ले आई।

वो बारिश की रातें, वो चाँदनी में बातें,

हमारी मोहब्बत को कविता बना गईं।

 

“पहली नज़र का जादू”भाग 2

(मुलाक़ातों का सिलसिला)

 

फिर आई सरस्वती पूजा की बेला,

जब कॉलेज के रंगों ने रचाया मेला।

हॉस्टल की सजावट में जुटे हम सब,

जैसे हर दीवार पर टंगा था 

कोई खामोश सा ख्वाब अब  

 

उस दिन तेरे घर गए हम सब मिलकर,

कुछ वस्त्र, कुछ सामग्री लेने सहम कर।

तू जब कपड़े देने आई झिझकते हुए,

मेरे दिल ने धड़कना शुरू किया धीरे-धीरे।

 

तेरे हाथों में वो कपड़ों की गठरी थी,

पर मेरी नज़रें किसी और ही गुत्थी में उलझी थीं।

जब तूने कपड़े सौंपे, मैं ठहरा नहीं,

उन कपड़ों के भीतर ही 

मैनें तेरा हाथ पकड़ लिया वहीं।

 

तेरा चेहरा एकदम से सहम गया,

जैसे चाँद पर किसी बदली का साया पड़ गया।

मगर मेरी मुस्कान थी नर्म और धीमी,

क्यूँकि मेरे हाथ लगी थी 

तेरे हाथों की खुशबू भीनी भीनी 

 

फिर चुपचाप छोड़ दिया मैंने तेरा हाथ,

मगर उस छुअन में बस गया एक साथ।

ना तू कुछ बोली, ना मैं कुछ कह पाया,

पर उस पल ने फिर मुझे बहुत तड़पाया

 

फिर आई पूजा की पावन घड़ी,

जब धूप और दीप से महकी हवा बड़ी।

मैं स्टेज के पीछे, व्यस्त था प्रसाद में,

तेरी आँखें मुझे ढूंढ रही थीं भरे जज़्बात में।

 

जब तूने मुझको वहाँ नहीं पाया,

तब सीधे स्टेज के पीछे चली आई तेरी काया।

प्रसाद लेने का बहाना तूने बनाया था प्यारा,

मगर तेरा इरादा तो था 

बस मुझे देख करना एक इशारा।

 

वहाँ, जब नज़रों की ज़ुबां बोली,

मोहब्बत ने अपनी रंगत खोली 

ना स्पर्श, ना बात, ना कोई आवाज़,

बस नज़रें खोल रही थीं सैकड़ों राज़।

 

तू मुझे देख, झट से नज़रें चुरा लेती,

हर बार जैसे खुद से खुद को छिपा लेती।

तेरे गालों की लाली कुछ और ही कहती,

तेरी घबराहट हर बार मेरी जीत लिख देती।

 

हर मुलाक़ात हमें कुछ और करीब लाती गई,

तेरे मेरे बीच की दीवारें खुद खुद गिराती गईं।

तू थी झिझकी सी, मैं था बेक़रार,

हम दोनों में बस रहा था एक अलहदा सा प्यार।

 

 

“पहली नज़र का जादू”भाग 3

(नज़रों  से कह  दो प्यार में  मिलने  का मौसम  आ  गया ) 

 

धीरे-धीरे वक्त बढ़ा,

मुलाक़ातें अब छुप-छुप के नहीं रहीं ज़रा।

क्लास की दीवारें भी कुछ समझने लगीं,

हमारी खामोश नज़रों की बातें पढ़ने लगीं।

 

कभी लैब के कोने में,

कभी क्लास की सीढ़ियों के किनारे,

कभी आम के पेड़ों के नीचे,  

बस नज़रें मिलतीं, रुकतीं, झुकतीं,

और दिल हमारे... कुछ और पास सिमट जाते 

 

कभी कोई किताब वापसी का वादा 

कभी कुछ कहने का अधूरा इरादा।

पर हर बार हम बस थोड़े और करीब जाते,

जैसे मौन में भी इकरार के शब्द बुन जाते।

 

फिर आया वो दिन,

जब हमारी परीक्षा थी — 

और मन था व्याकुल, ग़मगीन।

मैं समय से पहले पहुँच गया चुपचाप,

पीछे अपनी सीट पर बैठा

तुम्हारे इंतज़ार में अपने आप।

 

तुम आईं — तुमने देखा 

मैं कहीं नज़र नहीं आया 

फिर तुम थोड़ा घबराई 

तुम्हारी आँखें सकुचाई 

जब तुमने मुझे नहीं देखा कहीं,

तो मन में डर बैठा — "कहीं वो आया या नहीं?"

 

तुमने बिना कुछ कहे

अपना एक पेन स्टाफ को थमाया।

और धीमी आवाज़ में बोलीं

उसे दे देना, शायद आया हो वोपीछे कहीं …”

 

वो पेन मेरे हाथ में आया,

उसके संग तेरा संदेश भी लाया।

और जब उसने तुम्हें लौटकर बताया

"हाँ, पेन दे दिया उसे",

तब तेरे चेहरे पर जो राहत छाई,

वो एक इबादत सी मुस्कान लाई।

 

क्या ये इश्क़ नहीं था,

जो तेरे हर डर में मेरा नाम था?

तेरे एक पेन में जो लिपटी थी परवाह,

वो एक इम्तहान नहींमोहब्बत की थी गवाह।  

 

उस दिन का वो लम्हा

वो ख़ामोशी से हुई बात 

दर्ज़ है मेरे दिल में  बनकर एक मीठा जज्बात।  

हम कुछ कहे बिना बहुत कुछ कह गए थे,

एक पेन ने जो बंधन जोड़ा — 

हम बस उसमें बंध कर रह गए थे।

 

 “पहली नज़र का जादू”भाग 4

(ख़तों की ख़ामोश मोहब्बत)

 

फिर वो दौर भी आया इक रोज़,

जब जज़्बात अब नज़रों में नहीं समाते थे रोज़।

जब लब चुप रहते, मगर दिल कहने को बेक़रार था,

तब हमने खत लिखना शुरू किया 

जो हमारी मोहब्बत का इज़हार था।

 

ख़तों में लिपटे जज़्बात भेजे,

जैसे दिल के हर कोने को काग़ज़ में सींचे।

तेरे हर ख़त में एक खुशबू रहती थी बसी,

जो मेरे होशों को हर बार ले जाती थी कहीं।

 

वो गुलाबी लिफ़ाफ़े, वो कांपती लिखावट,

हर लफ्ज़ में होती तेरी धड़कन की आहट।

कभी "जान" कहती, कभी "अपना ख्याल रखना",

तेरी हर बात में छिपी होती मोहब्बत की एक रचना 

 

मैं भी अपने लफ़्ज़ों में तुझसे लिपट जाता,

तेरे नाम के आगे अपनी रूह रख आता।

मैं करता प्यार भी, और देता तुझको हिदायतें,

कि दुनिया बहुत सख़्त है, नज़रों से बचा ले ये मोहब्बतें।

 

मैं कहता — " मेरी जान, संभल के चलना,

तेरी मासूम हँसी पे भी लोग वार कर बैठें।

तू मेरी है, और मेरी ही रहेगी सदा 

पर इस ज़माने की रिवायतें भी समझ ले ज़रा 

 

कभी वो ख़त हाथ में थमाए जाते,

कभी गलती से किताबों में रख दिए जाते।

कभी तुम चुपके से छोड़ जातीं बेंच पर,

तो कभी मैं स्लिप में लपेटकर रखता तेरे कॉपी के बीच कहीं पर

 

हर ख़त एक गीत बन जाता,

हर जवाब एक और इंतज़ार सजाता।

ये स्याही की कहानी नहीं थी सिर्फ़,

ये दिल से दिल की रूहानी जुबानी थी 

 

यूँ ही चलते रहे वो ख़तों के मौसम,

बारिशों की बूंदों से सर्दियों के ठिठुरन तक 

ना कोई वादा, ना शोर, ना कोई कसम,

सिर्फ़ लफ्ज़ों की परतों में सिमटी 

एक खामोश सी मोहब्बत हर दम।  


“पहली नज़र का जादू”भाग 5

(मेरे मेहबूब तुझे  मेरी मोहब्बत  की  कसम )

 

फिर एक रोज़ की बात है,

जब क्लास थीकेमिस्ट्री की

हॉल की भीड़, घंटी की आवाज़,

हम दोनों बस चल रहे थे बेमक़सद सा।

 

और तभी

किस्मत ने हमें अचानक से आपस में टकरा दिया,

और तेरे हाथों से किताबें, कॉपियाँ, पेंसिल बॉक्स,

सब कुछ अचानक ज़मीन पर गिरा दिया।

 

एक सन्नाटा-सा छा गया क्लास में,

सबकी नज़रें अब हम दोनों पर थीं किसी आस में।

तू एकदम से घबरा गई, तेरी सांसें उलझ गईं,

और मेरे दिल की धड़कनें और तेज़ हो गईं।

 

मैं झुका — 

हर किताब, हर कॉपी, हर कलम और पेंसिल उठाने,

जैसे तेरे हाथों से गिरा तेरा स्पर्श समेट लाने।

तेरी उंगलियों की छाप उन किताबों के हर पन्ने में थी,

तेरी खुशबू हर कलम और पेंसिल में बसी थी।

 

तू जल्दी-जल्दी कुछ सामान उठाकर 

घबराती हुई क्लास में चली गई,

बाक़ी चीज़ें वहीं छोड़ कर... 

शायद ये सबकुछ तेरी आँखें नम कर गई।

और मैं

मैं फर्श पर बिखरे हर उन टुकड़ों को समेट रहा था,

जैसे तेरे स्पर्श को अपने कलेजे से लगा रहा था।

 

तभी पीछे से कुछ सीनियर्स हँसते हुये बोले वहां 

"अरे वाह! 'मेरे महबूब' की शूटिंग चल रही है शायद यहाँ !"

कुछ खिलखिलाहटें, कुछ तंज़, कुछ बेपरवाह हँसी,

पर मेरे कानों में बस तेरी उलझी खामोशी थी बसी।

 

तू थोड़ा विचलित हो गई थी उस दिन,

तेरी आँखों में थी कोई उलझन मेरे बिन।

क्लास के बाद जब हम घर की राह चले,

तेरी चाल में उदासी के कुछ छुपे छाले मिले।

 

तब मैंने तेरा हाथ थाम कर कहा

"ऐसी बातों से घबरा मत किया करो ज़रा।

ये दुनिया कुछ कहेगी, तंज़ कसेगी,

पर जब तक मैं हूँकोई बात तुम्हें छू भी नहीं सकेगी।"

 

"मैं हूँ हर गिरती चीज़ को उठाने,

तेरे हर डर को बाहों में छुपाने।

तेरे हर पल का रखवाला हूँ मैं,

तेरे सपनों का उजाला हूँ मैं।"

 

तू मुस्कराई — हौले हौले से 

जैसे फिर से यक़ीन गया हो 

तुझे मेरी मोहब्बत की लौ से।

 

“पहली नज़र का जादू”भाग 6

(कैसे  समझाऊं  बड़ी नासमझ  हो )

 

फिर आई कॉलेज की वो सुनहरी घड़ी,

जब शब्दों की जंग थी छिड़ी।  

वाद-विवाद की वो प्रतियोगिता आई,

जिसमें सबने अपनी अपनी तर्क आजमाई 

 

हम दोनों ही बोलेहौसलों से,

तू अपने तेज़ लफ्ज़ों में चमकी थी

मैं अपनी नरमी से बहा था।

और जब निर्णय की घड़ी आई,

हम दोनों ने जीत ली थी वो जंग 

दिलों ने दिमाग़ को हराया था।


उस दिन के बाद 

कॉलेज की भीड़ में अब मैं अकेला नहीं था,

लोग मेरा नाम जानने लगे थे

मुझे तेरे साथ पहचानने लगे थे।  

 

कॉलेज में फिर हुआ एक और आयोजन,

कॉलेज में रंगारंग कार्यक्रम का आमंत्रण।

हमें मिला उद्घोषणा का जिम्मा

और ये साथ, मंच पर भी, सच हो गया हमारा सपना।

 

तू उस शाम बनी थी पोर्शिया ,

एकल अभिनय में तूने जो जान भरी 

देखती रह गयी ये सारी दुनिया 

तेरा अभिनय, तेरे संवाद

हर तालियों में जैसे तेरे लिए 

मेरी धड़कन बज रही थी आज।

 

स्टेज के पीछे, ग्रीन रूम की तंग गलियाँ,

हमारे लिए बन गईं जैसे इश्क़ की दुनिया

वहाँ मिलते हम चुपचाप, हर दूसरे आइटम के बाद,

तेरा हाथ थाम लेना, तेरी आँखों में छिपे थकान को पढ़ लेना

बस वही तो था मेरा सबसे बड़ा ईनाम

 

तेरे पसीने की ख़ुशबू में भी मोहब्बत थी उस दिन,

तेरे जिस्म की हर तह में लिपटी घबराहट थी मुझ बिन।

मैंने उस शाम तुझे देखा

जैसे कोई शायर अपनी शायरी को पढ़ता है आख़िरी बार,

हर हर्फ़ को छूता है, चूमता है

कि ये कभी छूटे, कभी मिटे।

 

तू हँसी तो जैसे रोशनी हुई,

तू थकी तो मैं तुझमें सिमट गया कहीं।

तूने जब एक बार मेरी उंगलियों को छुआ,

तो मेरी रूह तक वो कंपन उतर आई

जैसे कोई गीत बदन से निकल कर रूह में बस जाए।

 

उस शाम मैंने तुझे जी भर कर देखा,

तेरे हर रूप को, हर मुस्कान को जिया

मंच पर, ग्रीन रूम में, हर कोने में बस तू ही थी

और मैं तेरा होने की हर सज़ा, हर सुकून पी रहा था पूरी तरह।


वो रात भी कितनी ख़ुशगवार थी 

तुम और मैं 

उस  रात के नायक नायिका 

प्रोग्राम के बाद  

मैंने तुम्हारा हाथ थामा 

और तुम्हें घर छोड़ने  के लिए तुम्हारे साथ चल पड़ा 


हमने जान कर स्टेडियम के पीछे का लम्बा रास्ता चुना था 

कि हम कुछ और देर साथ रह सकें 

हमारे जुबान खामोश थे 

हाथों में हाथ लिए 

जैसे मोहब्बत हमारी रगों से बह कर  

हमारी रूहों तक पहुँच रहा था 


“पहली नज़र का जादू” — भाग 7

(दिल से मिले दिल - उसने कहा था )

उस रात मैं पोर्शिया बनी थी

सफेद गाउन में

चांदनी सी उजली,

तेरे सामने

तेरी मोहब्बत का अक्स बन कर खड़ी थी।

 

उस रात मैं किरदार नहीं थी

मैं तेरी कल्पना थी,

तेरे भीतर की वो नज़्म थी,

जिसे तू बरसों से

बिना लफ्ज़ों के गुनगुना रहा था।

 

गाउन में लिपटी मैं

कोई और नहीं

वो ही थी

जिसे तू हर ख्वाब में

सफेद रौशनी सा देखता था।

 

तेरी नज़र जब मुझसे टकराई,

तो वक़्त ठहर गया था

ना कोई मंच रहा,

ना कोई दर्शक,

बस हम थे

तेरे भीतर मेरा प्रतिबिंब

और मेरे भीतर तेरा स्पर्श।

 

तू मुस्कराया

जैसे कोई राजकुमार किसी परी को देख ले,

तेरे शब्द नहीं,

तेरी आँखें बोल रही थीं

आज तुम सिर्फ़ ख़ूबसूरत ही नहीं,

बल्कि पूरी तरह मेरी लग रही हो।

 

तू कुछ कहता नहीं था,

पर तेरी आँखों में

एक पूरा प्रेम-पत्र जलता था,

जिसे मैं

पलक झपकते पढ़ लेती थी।

 

मैं अपनी सारी शरारतें

तेरी उस नज़र में कहीं भूल आई थी।

वो पहली बार था

जब मैं तेरे सामने

पूरी तरह समर्पित थी। 

 

वो सीढ़ियाँ

जहाँ हमारे कदम एक हुए थे,

हमने साथ चढ़ीं,

पर रास्ते अलग हुए

मैं कॉमन रूम की तरफ़ गई,

और तू वहीं रुका रहा

जैसे मेरी छाया को थामे खड़ा हो,

जैसे मेरा इंतज़ार भी

तेरी साँसों में ठहर गया था।

 

फिर जब हम ऑडिटोरियम के ईस्ट विंग में मिले,

तो नीचे भीड़ थी

और हम ऊपर

नीचे शोर था,

पर हमारे बीच

केवल ख़ामोशी,

और उस ख़ामोशी में

एक ऐसी लय थी

जिसे बस प्रेम ही समझ सकता है।

 

तेरे हाथों ने मेरा हाथ नहीं थामा था

बल्कि मेरे भीतर की हर बेचैनी को

थाम लिया था।

उस रात तेरे स्पर्श में कोई जल्दी नहीं थी,

कोई हड़बड़ी नहीं थी

बस एक धीमा, गहरा,

रूह तक उतरता आलिंगन था।

 

तेरी उंगलियों का ताप

मेरे रेशमी गाउन से भी तेज़ था।

तेरे होंठ

धीरे-धीरे मेरे चेहरे के करीब आये,

और फिर

उस रात तूने मुझे ऐसे चूमा

जैसे समय भी रुक गया हो

तेरे अधरों के ताप में।

 

वो सिर्फ़ एक चुंबन नहीं था,

वो तेरे भीतर के प्रेमी का

पूर्ण प्रकटीकरण था।

मुझे लगा,

तू मुझे नहीं,

मेरे किरदार को जी रहा है

पर मैं तब भी

तेरी बाँहों में ही थी।

 

जब तू मुझे चूम रहा था,

तो तेरे होठों में शब्द नहीं,

बल्कि एक वादा था

एक प्रेम का,

जो देह से नहीं,

बल्कि आत्मा से निभाया जा रहा था।

 

मुझे पहली बार लगा

मैं किसी के हाथों में नहीं,

किसी की आत्मा में समा गई हूँ।

तू मुझे नहीं,

पोर्शिया को नहीं

बल्कि अपनी मोहब्बत को चूम रहा था।

 

तू आज वही था

पर तेरी बाँहों की पकड़

कुछ और ही कह रही थी।

मेरा चेहरा तेरे सीने में छुपा

और मैं

खुद को कहीं खो बैठी।

 

उस रात मैं तेरे सीने में सिर रखे

उलझ गई थी

वक़्त से, दुनिया से,

और खुद से।

तेरे दिल की धड़कनों में

मैंने वो लोरी सुनी

जो शायद मेरे जन्म से पहले लिखी गई थी।

 

हमारे प्यार का तरीका

हर बार वही होता था

पर उस रात

तेरा प्यार कोई दूसरी ही भाषा में बोल रहा था।

 

वापसी में

जब तूने स्टेडियम के पीछे का रास्ता चुना,

मैं जान गई थी

तू वक़्त को मोड़ रहा है,

कि कुछ और देर

मुझे अपने साथ रख सके।

हम चुप थे,

पर वो चुप्पी

तेरे मेरे बीच की सबसे गहरी बातचीत थी।

तेरा हाथ थामे मैं चल रही थी,

जैसे चांद की एक किरण

धरती की रेखा तक उतरी हो।

 

मेरा हाथ थामे

तेरी उंगलियों ने मेरी हथेली को पढ़ा,

और मेरी सांसों ने तुझमें

अपना ठिकाना पा लिया।

 

घर के पास पहुँचे तो

नज़रों ने विदाई नहीं दी

बल्कि एक आखिरी आलिंगन लिया

जिसमें शब्द नहीं,

बस साँसें थीं

तू मेरी थी, मैं तेरा था।

 

नज़रें

बस देर तक एक-दूसरे में टिकी रहीं।

जैसे रुख़सत से पहले

रूहें एक-दूसरे में समा जाना चाहती हों।

 

उस रात

मेरी नींद नहीं टूटी थी,

क्योंकि मैंने नींद में नहीं थी

मैं तेरे भीतर कहीं ठहर गई थी,

और तू मेरी पलकों में,

अब भी सोया हुआ था।

और मैं

तेरे चुंबन की याद में

अपने ही तकिये पर

तेरा नाम खोजती रही।


“पहली नज़र का जादू” — भाग 8 

(चौदहवीं का चाँद हो या आफताब हो)

उस रात,

जब तुम पोर्शिया बनीं थी,

तो चाँदनी ने खुद को

तुम्हारे सफ़ेद गाउन के आँचल में छुपा लिया था।


मंच पर जब तुम बोलीं,

तो हर शब्द तुम्हारी आँखों से चाँदनी की तरह बरस रहा था —

धीमा, उजला,

और भीतर तक गीला कर देने वाला।


वो सिर्फ़ एक अभिनय नहीं था,

बल्कि उस किरदार में तुम खुद को खो बैठी थीं,

और मैं तुम में पोर्शिया को जी उठा था।


मेरी आँखों के सामने आज भी वो बिंब नाचता है —

जहाँ मंच की रोशनी में तुम पोर्शिया का संवाद बोल रही हो,

और उसी में मेरा प्रेम,

तुम्हारा समर्पण,

और उस रात की सारी रूहानी धड़कनें भी शामिल हो जाती हैं।


जब मंच की बत्तियाँ जलीं,

और तुम सफेद गाउन में आई,

मुझसे पहले शेक्सपियर की रचना

तुमसे मोहब्बत कर बैठी थी।


तुम बोलीं —

“The quality of mercy is not strain’d,

It droppeth as the gentle rain from heaven

Upon the place beneath: it is twice blest; 

It blesseth him that gives and him that takes.”


और मैं…

तुम्हारी हर पंक्ति में डूबता चला गया,

हर शब्द मुझे लगता

जैसे तुम मुझसे कह रही हो —

“मेरे प्रेमी…

तेरा प्यार मेरे लिए रहम नहीं,

एक भींगी बरसात है

जिसमे मैं जन्मों जन्मों तक भींगना चाहती हूँ।”


मुझे लगा

तुम सिर्फ़ मंच पर नहीं,

मेरे दिल के भीतर कहीं बोल रही हो।

तुम्हारे लहजे में,

तुम्हारी आँखों की नमी में,

तुम्हारी थरथराती आवाज़ में —

वो सब था

जो कोई प्रेमी

अपने प्रेमिका से सुनना चाहता है।


वो संवाद —

जहाँ न्याय, रहम और प्रेम एक हो जाते हैं —

उस पल मैं जान गया

कि ये पोर्शिया नहीं,

ये तुम हो,

जो मंच से उतरकर

मेरे रूह में समा गई थी।


तुमने अभिनय किया था,

पर मेरा प्यार

उसमें सच बनकर खड़ा था।

और उस सच में

तुमने जब मुझे देखा,

तो मंच, भीड़, स्पॉटलाइट —

सब कुछ पीछे रह गया।


वो संवाद अब भी मेरे कानों में है,

वो रात अब भी मेरे स्पर्श में है,

और तुम —

अब भी हर कविता में

पोर्शिया बनकर

मुझे प्रेम का पाठ पढ़ा रही हो।


चाँदनी, तुम्हारी उस रात की तीसरी साक्षी थी —

हम दोनों के साथ-साथ चलती,

नज़रों से छुपती छुपाती,

पर रूह के बिल्कुल पास।


चाँदनी ही तो थी

जो हमारे बीच की हर दूरी मिटा रही थी,

जो हमारे होंठों की ख़ामोशी को

स्पर्श में बदल रही थी।


जब हम स्टेडियम के पीछे से लौट रहे थे,

चुपचाप, हाथ में हाथ डाले —

तो चाँदनी ही तो थी

जो हमारी परछाइयों को

एक-दूसरे में समेट रही थी।


तेरे चेहरे पर जब चांदनी गिरी,

तो मुझे लगा

जैसे कोई कविता

अपने सबसे सुंदर शब्द पर आकर रुक गई हो।


उस रात चाँदनी —

न सिर्फ़ हमारे साथ थी,

बल्कि हमारे भीतर तक उतर चुकी थी।


वो हमारी गवाह थी,

हमारे प्रेम की साजिश में शामिल थी —

वो जानती थी

कि यह रात हमारी थी,

यह चुप्पियाँ हमारी इकरार थीं,

और यह सफ़र —

बस चाँद की रौशनी में लिखा जा रहा एक प्रेम-पत्र था।


जब तुझे घर छोड़ा,

और तू पल भर को रुकी ,

मेरी आँखों में आँखें डाले —

तो चाँदनी तेरे रुख़्सार पर उतर आई,

जैसे मेरी सांसें तेरे चेहरे को छू रही हों।


तू अपने घर गई,

मैं हॉस्टल की ओर —

पर चाँदनी दोनों जगह उसी तरह बसी रही,

तेरे तकिए पर भी,

मेरी चादर में भी।


वो रात नहीं थी —

वो एक उजली इबादत थी,

जिसमें हमने चाँदनी को अपना ख़ुदा मान लिया था।


“पहली नज़र का जादू” — भाग 9  

(कल  रात  ज़िन्दगी  से  मुलाकात  हो गई )


 वो रात भी कितनी ख़ुशगवार थी —

तारों ने भी शायद पहली बार

धीरे से मुस्कुरा कर

हमारी मोहब्बत को दुआ दी थी।

 

तुम और मैं —

उस रात के नायक और नायिका

लफ्ज़ों से नहीं,

धड़कनों की धुन पर बातें कर रहे थे

 

प्रोग्राम के बाद

जब भीड़ में आवाज़ें गूंज रही थीं,

मैंने तुम्हारा हाथ थामा —

जैसे सारा जहाँ थम गया हो उसी पल।

 

और फिर हम निकल पड़े —

एक साथ तुम्हें घर छोड़ने

बिना कुछ कहे,

मगर हर खामोशी में सौ इकरार करते हुए।

 

हमने जान-बूझ कर

स्टेडियम के पीछे का लम्बा रास्ता चुना —

वो रास्ता जहाँ वक्त

थोड़ी देर ठहर जाए हमारे लिए,

जहाँ चाँदनी

हमारे क़दमों के पीछे-पीछे चले।

 

हमारी जुबां खामोश थीं,

मगर हमारे हाथों की गिरह

किसी रूहानी बंधन में बंध चुकी थी।

वो छुअन —

वो कोई ऐसी छुअन नहीं थी,

बल्कि एक रूह से दूसरी रूह की पुकार थी।

 

उस रात हवाओं में

एक मद्धम-सा गीत बह रहा था —

जिसे सिर्फ़ दिल ही समझ सकता था

जिसे सिर्फ़ दो प्रेमी रूहें सुन सकती थीं।

 

हमारी मोहब्बत

लफ़्ज़ों से परे

एक सूक्ष्म तरंग बन कर

हमारे चारों ओर तैर रही थी —

जैसे फूलों की ख़ुशबू बिना छुए भी

मन को भिगो देती है।

 

हर क़दम पर

एक नई कविता जन्म ले रही थी,

जो न तो कलम से लिखी जा सकती थी,

न जुबां से कही जा सकती थी —

बस महसूस की जा सकती थी

दिल की अनकही सतहों पर।

 

उस रात —

तुम्हारी आँखों में जो नमी थी,

वो समंदर बन कर मेरे सीने में उतर आई थी

और मेरी साँसों में जो गर्माहट थी,

वो तुम्हारी हथेली में उतर कर

इक उम्र का वादा कर गई थी

 

हम कुछ नहीं बोले,

पर उस ख़ामोशी में

ज़िंदगी की सबसे प्यारी बातचीत हुई।

तुमने कुछ कहा नहीं,

फिर भी मैंने सब कुछ सुन लिया।

 

तब जाना —

कि जब मोहब्बत सच्ची होती है,

तो उसे लफ़्ज़ों की ज़रूरत नहीं होती।

बस एक साथ चलना,

एक हाथ थाम लेना,

और लम्हों को जी लेना ही काफ़ी होता है

इक रूह के दूसरी रूह से मिलने के लिए।

 

उस रात...

वक़्त, मौसम, हवा, तारे —

सब हमारे साथी बन गए थे,

और हम —

बस चलते गए

ख़ामोश राहों पर,

रूह से रूह तक के

उस अबोले इश्क़ के साथ।

 

“पहली नज़र का जादू” — भाग 10 

(ज़िन्दगी भर नहीं  भूलेगी  मुलाकात वो रात )

वर्षों बीत गए उस रात को —

वो ख़ुशगवार ख़ामोशी अब

मेरे वजूद की धड़कनों में बसी है।

न वो स्टेडियम का मोड़ रहा,

न वो चाँदनी का साथ —


मगर वो लम्हा,

अब भी मेरे साथ साँस लेता है।

कभी-कभी

जब हवा अचानक वही महक लेकर आती है,

या कोई गीत

उसी पुरानी धुन में गूंज उठता है —


तब लगता है,

तुम्हारा स्पर्श फिर से उभर आया है

मेरी उंगलियों की पोरों पर।

तब मैं ख़्वाबों में फिर से उसी राह पर चल पड़ता हूँ

अपनी स्मृति के भीतर,

जहाँ एक खामोश रात में

तुम और मैं

एक दूजे के मौन में

अपनी पूरी ज़िन्दगी पढ़ रहे थे।


अब भी महसूस होता है —

कि तुम्हारी वो नज़र,

जो बिना बोले मेरे मन के छोर को छू गई थी,

वो अब भी यहीं कहीं है,

मेरे मन में, मेरी साँसों के राग में,

मेरी रूह की गहराई में।


कोई देखे तो क्या देखे?

बस एक अकेला आदमी,

शायद सड़क किनारे खड़ा,

या छत पर टहलता,

या यूँ ही खिड़की से बाहर झाँकता हुआ।


मगर कोई क्या जाने —

कि उस पल में वो आदमी

फिर से जी रहा है वो एक रात,

जब प्यार को

लफ़्ज़ों की ज़रूरत नहीं थी,

जब ख़ामोशी ही जुबान थी 

और हवा डाकिया


तुम्हारे जाने के बाद

मैंने तुम्हारा हाथ तो छोड़ दिया था,

मगर वो अहसास —

जैसे एक अमिट कम्पन —

अब भी बहता है मेरे रगों में।


रातें अब भी आती हैं,

कुछ उदास, कुछ खामोश —

मगर उस एक रात की बात

ही कुछ और थी।


क्योंकि उस रात —

दो रूहें

संजोग के संगीत में डूबी थीं।

क्योंकि उस रात —

मैंने जाना

कि प्यार कहने की नहीं,

बस महसूस करने की चीज़ है।


और आज —

जब कभी जीवन थम सा जाता है,

जब अकेलापन घेर लेता है,

मैं उस रात की ओर लौट जाता हूँ —

जहाँ तुम थी,

जहाँ मैं था,

और जहाँ रूहों ने

अपने मिलन का पहला वचन दिया था

बिना कुछ कहे।


वो रात 

अब भी मेरी रातों में चमकती है,

जैसे कोई टिमटिमाता तारा

सीने के आकाश में —

अमिट, अडोल,

और अनंत।


“पहली नज़र का जादू”भाग 11 

(बारिश, रुमाल और रूह का स्पर्श)

 

फिर एक दिन क्लास के बाद की बात है,

जब दोपहर की थकी धूप अलविदा कहने को थी,

और हम, रोज़ की तरह

स्टेडियम के बगल वाले उस रास्ते पर थे,

तेरे घर की ओर जाते हुए,

बिल्कुल वैसे हीजैसे हर बार दिल की दूरी कम करते हुए।

 

अचानक...

आसमान ने अपनी पलकों से बूँदें टपकाईं,

बारिश एक झोंके में उतरी

बिना पूछे, बिना आहट के...

और हम भीग गए,

तेरे चेहरे पर आई वो पहली बूँद...

जैसे मेरे होंठों पर कोई दुआ उतर आई।

 

हम दौड़े...

कदमों की ताल अब बारिश के संग बज रही थी,

स्टेडियम की सीढ़ियों तले जाकर रुके,

जहाँ कुछ देर की पनाह मिली

पर तेरे कपड़े भीग चुके थे,

तेरे बालों में बारिश ठहर गई थी।

 

तू काँप रही थी

नर्मी से, झिझक से, और थोड़ी सी लज्जा से भी शायद।

मैंने हौले से अपना रुमाल निकाला,

जैसे कोई ताबीज़ सौंप रहा हो

और कहा: “लो... कुछ तो सूखा सको तुम ख़ुद को इससे।

 

तूने रुमाल लिया

अपने सीने से लगा कर...

जैसे वो कपड़ा नहीं, मेरी मौजूदगी थी,

जैसे मेरी धड़कन अब तेरे स्पर्श में बस गई थी।

 

मैं देखता रहा

तेरा वो चेहरा, जब तूने अपने गालों से बारिश पोंछी,

हर बूँद जो मिट रही थी,

वो जैसे मुझमें उतर रही थी।

 

रुमाल मेरे पास कभी लौटकर नहीं आया,

पर उसकी कमी महसूस नहीं हुई,

क्योंकि अब मेरी एक निशानी तेरे पास थी

तेरे आलिंगन में,

तेरे स्पर्श में,

तेरे अपनेपन में।

 

उस दिन, मेरी कोई चीज़ तुमने पहली बार अपने पास रखी थी,

और मेरा दिल...

वो भी तो उसी दिन पूरी तरह तुम्हारे पास चला गया था।

 

“पहली नज़र का जादू”भाग 12 

(भीगा हुआ ख़त और घुलते हुए जज़्बात)

 

उस रोज़ की बारिश ने

सिर्फ़ कपड़े नहीं भीगाए थे,

उसने हमारे लफ़्ज़ों को भी भीग जाने दिया,

हमारे जज़्बातों को

स्याही बन कर काग़ज़ पर उतर जाने दिया।

 

जब स्टेडियम की सीढ़ियों तले

तूने मेरे हाथ में वो छोटा-सा ख़त रखा था,

तेरे काँपते हाथों से

तेरे दिल का हर कोना उस काग़ज़ में बसा था।

 

मैंने वो लिफ़ाफ़ा खोला ही था कि

बारिश ने अपने आँचल से उस ख़त को छू लिया।

तेरे हर हर्फ़ की स्याही बह चली थी

जैसे तेरी हर बात मुझमें घुलती गई थी।

 

वो "जान" जो तुमने पहले पंक्तियों में लिखा था,

अब बाकी पंक्तियों में फैल चुका था

जैसे मोहब्बत ने सारी सीमाएँ तोड़ दी हों,

और हर अल्फ़ाज़ एक-दूसरे में समा गया हो।

 

मैं पढ़ नहीं सका उन लफ़्ज़ों को 

पर महसूस कर पाया

हर भीगा हुआ शब्द,

तेरे रूह की सदा बनकर मेरे दिल तक या।

 

वो ख़त अब एक दस्तावेज़ नहीं रहा था,

वो इकरार बन चुका था

तेरे जज़्बातों का भीगा हुआ आईना,

जिसमें मुझे सिर्फ़ तू दिख रही थी —

हर फैली हुई स्याही में, हर धुंधले हरफ मेंसिर्फ़ तू।

 

वो पन्ना अब मेरे पास नहीं रहा,

पर उसकी महक, उसकी छुअन

अब भी मेरे सीने के किसी तहख़ाने में

भीगी हुई मोहब्बत की तरह ज़िंदा है।

 

 “पहली नज़र का जादू”भाग 13 

(रूहों की खामोश मुलाक़ातें)

 

जब कभी कॉलेज की भीड़

हमारे बीच दीवार बन जाती,

या गलियाँ ख़ामोश रहतीं तेरे नाम की,

तब शामें मेरे लिए अधूरी-सी हो जातीं।

 

और मैं

तेरे घर की ओर चल पड़ता,

हॉस्टल की खिड़की से तेरी गली तक

हर क़दम तेरे इंतज़ार की परछाईं लेता।

 

वहाँ, अक्सर

जैसे तक़दीर ने खुद कोई साज़िश रची हो,

तू अक्सर अकेली मिलती

तू मेरी बाँहों की पनाह में,

मैं तेरे घर के सन्नाटे में।

 

हम मिलते

बिना शब्दों के,

बिना घड़ी की सुइयों की इजाज़त के,

बस एक-दूसरे की साँसों को बाँधते हुए।

 

तेरे होठों पर जब मेरे होंठ पर टिकते,

तो जैसे पूरी कायनात थम जाती।

साँसेंएक हो जातीं,

धड़कनेंसंगम बन जातीं।

 

तेरी नर्म हथेलियाँ मेरी पीठ पर जब सिहरतीं,

तो मैं जान जाता

ये इश्क़ अब किताबों में नहीं,

तेरी दिल की गर्माहट में दर्ज़ हो चुका है।

 

हर मुलाक़ात में

हम थोड़ा और सिमटते,

थोड़ा और खुलते

बिना किसी वादे के,

मगर हर बार पूरी सच्चाई से।

 

तेरी आँखें जब मेरी आँखों में उतरतीं,

तो जैसे कोई दुआ धीरे-धीरे उतर रही हो फ़लक से।

और मैं

तुझे बाहों में लेकर,

ख़ुद को भूल जाता।

 

वो मुलाक़ातेंजो किसी कैलेंडर में दर्ज़ नहीं,

जो किसी दोस्त को नहीं बताईं गईं,

वो ही हमारी कहानी की सबसे सच्ची स्याही बन गईं।


“पहली नज़र का जादू” — भाग 14   KATHMANDU


“पहली नज़र का जादू” — भाग 15 

(उस दिन की बात, जब तुम माँ के पास थीं और मैं तुम्हारे पास)


वो किसी घर की

पूजा की दोपहर थी,

पर मेरे लिए

वो तुम्हारी एक झलक का लम्हा बन गई थी।


मैं माँ के साथ आया था,

तुम पहले से वहाँ थीं…

पर जब तुमने माँ को देखा,

तुम जैसे मुस्कराहट ओढ़ आई थीं।


तुम माँ से ऐसे मिलीं

जैसे बरसों से जानती हो,

उनके हर शब्द में

तुम अपनी श्रद्धा बांधती रही 


तुम उनके पास बैठीं

कुछ यूँ… जैसे बेटियाँ बैठती हैं,

तुमने माँ की बातों में

अपना घर ढूँढ लिया था शायद।


मैं वहीं था —

लेकिन दूर…

कनखियों से देखता

तुम्हारी हर लाली को छूता।


जब-जब तुम मेरी तरफ़ देखतीं

और नज़रें झुका लेतीं,

तब तुम्हारी पलकें

मुझसे ज़्यादा बोल जातीं।


तुम्हारे गालों की गुलाबी खामोशी

मेरी साँसों की गर्मी को बढ़ा देती,

और मैं बस…

अपनी किस्मत पर मुस्कुरा देता।


तुम्हारी हल्की सी मुस्कान,

वो धीरे-धीरे उठते होठ,

जैसे मेरे दिल को

आरती का दिया बना देते।


पूजा चलती रही,

घंटी बजती रही,

लेकिन मेरी नज़र 

बस तुम्हारे चेहरे परटिकी रही।


तुम माँ से बात करती रहीं,

पर मैं जानता था —

हर उत्तर से पहले

तुम मेरी मौजूदगी को टटोलती थीं।


एक बार माँ ने जब मेरा नाम लिया,

तुम्हारी पलकें काँपी थीं —

जैसे कोई नाम

तुम्हारे दिल के मंदिर में दीप बन गया हो।


उस दिन मैं जान गया —

तुम मुझे नहीं,

मेरे अपनों को भी

अपनी मोहब्बत से अपना बना रही हो।


और मैं…

बस एक दीवाना बनकर

तुम्हारे चेहरे की पूजा करता रहा,

जिस पर हर शर्म की लाली

मेरे इश्क़ की मंज़ूरी थी।


“पहली नज़र का जादू” — भाग 16 

(जब कायनात ने फिर से हमें मिलाया)

वो कोई आम सी रात नहीं थी,

सितारों ने जैसे

ज़मीन पर तुम्हें चुन लिया था

रात को सजाने के लिए 


उस रात

सिर्फ चाँद ही नहीं खिला था -

कायनात की आँखों में भी

चमक उतर आई थी।

 

उस रात तुम्हारी कॉलोनी में

किसी घर में रौनक सजी थी,

शायद कायनात ने  फिर से 

हमें मिलाने की साज़िश रची थी 

 

मैं आया

कुछ मेहमानों में शामिल होकर,

पर मेरी नज़रें

तुम्हारी तलाश में भटक रही थीं।

 

और फिर

तुम आयी।

अपनी माँ की वाइन और सुनहरी साड़ी में

जैसे कायनात ने तुम्हें उतारा था 

मेरे दिल की ज़मीं पर

पूरे जहां की खूबसूरती समेटे 

और मैं

अपलक तुम्हें निहारता रहा 

 

तुम्हारी चाल में

एक सधी हुई सादगी थी,

क़दम ऐसे उठ रहे थे जैसे

रागिनी की धुन पर कोई राग छिड़ी हो।

 

तुम्हारा चेहरा

हल्की रौशनी में

पूजा की आरती जैसे 

धूप की खुशबू के साथ उतर आई हो।

 

जब मैंने तुमको देखा 

वो कोई मामूली पल नहीं था,

उस पल में कुछ ऐसा हो रहा था  

जिसमें एक पूरी कविता जन्म ले रही थी।

 

तुमने नज़रें झुका लीं,

पर वो झुकाव

मेरे भीतर एक तूफ़ान जगा गया।

 

तुम्हारे गालों की लाली

गुलाब की पंखुड़ी लग रही थी,

तुम्हारी आँखों में एक मीठी सी हिचक थी,

एक मासूम डर,

और बहुत सारा मौन।

 

चेहरे पर चाँद की मासूम नमी,

और मैं

तुम्हारी हर झलक को

ख़्वाब बना कर सहेज रहा था।

 

जब मेरी नज़रें तुमसे टकराईं,

तुमने नज़रें झुका लीं,

और वो हया से भरी लाली  —

मेरे सीने में

ग़ज़ल बनकर बस गई।

 

तुम्हारी मुस्कान —

जैसे आधा चाँद होठों पे रखा हो,

और मैं —

उस चाँद को अपनी पलकों से

चूम लेने की ख्वाहिश में था।


मेरी मुस्कान

अनायास ही उभर आई थी,

और तुम्हारे होठों ने

उसका जवाब

एक धीमीकोमल मुस्कान से दिया था। 

 

हमारे बीच कोई लफ्ज़ नहीं थे,

पर नज़रों की जुबां 

बातें कर रही थीं उस रात।

 

मैं तुम्हें भीड़ में ढूंढता,

शर्म की चुनरी में सजी 

तुम कहीं से दिखतीं,

फिर मैं ठहर जाता —

और तुम

खामोश आँखों से सब कुछ कह देती 

 

हर बार जब तुम दिखीं,

मेरी दुनिया ठहर गई।

मैं तुम्हें देखता रहा

जैसे एक भूखा मन

सिर्फ खूबसूरती नहीं,

अपनी रूह को देख रहा हो।

 

तुम्हारी नज़रें जब-जब

मुझसे टकराईं,

तुम्हारी साड़ी,

तुम्हारा रूप,

तुम्हारी मुस्कान

हर भाव में कविता बहने लगी।

 

तुमने मुझे थामा,

और मैं टूट कर बिखर गया

एक प्यार में जो अब लफ़्ज़ों से परे था।

उस रात तुमने कुछ नहीं कहा था,

पर मैंने सब समझ लिया था।

क्योंकि मोहब्बत

कभी-कभी

लफ्ज़ों की मोहताज नहीं होती।

 

पूरी रात

हमने चुप रहकर

सब कुछ कह दिया था।

और जब विदा का वक़्त आया

 

तुम्हारी नज़रों में

कोई अधूरी सी बात तैर रही थी,

एक रुकती हुई चाहत

जो पलकों के किनारों पर अटकी थी।

 

जब मैंने तुमसे विदा ली

तुम्हारी आँखों में

इक सवाल थम गया था।

एक रुकती हुई उदासी,

जो कह रही थी

"फिर कब मिलोगे?"

 

मैं गया,

पर तुम्हारी नज़रों ने

मुझे रुक जाने को कहा

फिर भी मुझे जाना पड़ा 

 

उस रात

नींद आँखों से कोसों दूर थी 

रह रह कर तुम नज़रों के सामने आ जाती 

और मेरे दिल की धड़कनें बढ़ा जाती 


फिर मैंने कलम उठाई

और तुम्हारे नाम एक ख़त लिखने लगा 

और वो सब कुछ कह दिया

जो मैं तुमसे कह सका था।  

 

हर लफ्ज़ में

तुम्हारी साड़ी की बात आई,

हर हर्फ़ में

तुम्हारे होठों की मुस्कान।

 

मैं तुम्हारी ख़ूबसूरती को

लिखते-लिखते थक गया,

पर अल्फ़ाज़

खत्म नहीं हुए।

 

हर बार सोचता —

अब बस,

आख़िरी लाइन लिख दूँ,

पर तुम्हारा कोई और रूप

मेरी रूह को फिर से लिखने को मजबूर कर देता।

 

और फिर

लिखते-लिखते

नींद आ गई …

और तुम

फिर से मेरे ख्वाबों में चली आईं।

 

इस बार

 कोई बातें 

 कोई महफ़िल —

बस तुम

और तुम्हारा बेपनाह प्यार।

 

 “पहली नज़र का जादू” — भाग 17 

(हमारी मुलाकातों का सिलसिला) 

हम रोज़ मिलते थे —

ना जाने कैसे,

ना जाने कब से —

कभी कॉलेज की भीड़ में

कभी फुरसत की छाँव में 

तुम यूँ मिलतीं

जैसे कोई सुकून भरी हवा

भीड़ को चीरती हुई

सिर्फ मुझे छू कर जाती हो

और मेरे प्यासे रूह की 

प्यास मिटाती हो  


कभी स्टेडियम की ऊँची सीढ़ियों पर,

हम एक दुसरे  के करीब 

हाथों में हाथ लिए 

घंटों बैठे रहते रहते 

जहाँ तुम्हारी खामोश मुस्कान

मेरी जीत की सबसे बड़ी ट्रॉफी लगती।


कभी कॉलेज की कैंटीन में,

जहाँ भीड़ के शोर में भी

तुम्हारी नज़रें

मेरी कॉफी के कप से टकरा जातीं

और मैं 

उस कॉफ़ी के कप को तुम्हारा होठ समझ 

उसे चूम लिया करता था 


और सबसे ज़्यादा —

हम मिलते थे उस जगह

जहाँ सन्नाटा भी

मोहब्बत की आवाज़ बन जाता था…

लाइब्रेरी।


वहाँ हम घंटों साथ होते थे,

पर लफ़्ज़ों की ज़रूरत नहीं पड़ती थी।

किताबें खुलती थीं,

पर हम तो बस एक-दूसरे की पलकों को पढ़ते थे।

बंद किताबों के बीच

तुम्हारी खुली आँखें

मुझसे कहानियाँ सुनती थीं।


कभी बुकशेल्फ के आर-पार से

तुम्हारी नज़रें मुझे ढूंढतीं,

तो मैं जानबूझकर

थोड़ा और वहीं रुक जाता —

कि वो खोज कभी खत्म न हो।


कभी आमने-सामने बैठ कर,

पन्ने पलटने का बहाना होता,

पर हम तो सिर्फ

एक-दूसरे के चेहरों के भाव पढ़ते थे।


जब भी हमें मौक़ा मिलता,

तो हम एकांत में

हाथों में हाथ डाले बैठ जाते —

घंटों,

बिना कोई घड़ी देखे,

बिना कोई बात किए।


तुम अपना सर

धीरे से मेरे कंधे पर टिका देतीं,

और मैं —

अपने हर स्पर्श से

तुम्हारी रूह को छूने की कोशिश करता।


तुम्हारी बंद आँखें

मेरे भीतर रोशनी भर देती थीं,

और मैं तुम्हारे हाथों की गर्मी से

अपने वजूद को जिंदा महसूस करता।


तुम मेरे लिए

कोई साधारण लड़की नहीं थीं…

तुम एक तोहफ़ा थीं —

वो भी खुदा की दस्तक के साथ मिला हुआ।


मैं तुम्हारे हर पल को

संभाल कर रखना चाहता था,

जैसे कोई ताज़ा ग़ज़ल

जिसके हर मिसरे को

सांसों में क़ैद कर लिया जाए।


  “पहली नज़र का जादू”भाग 18  

(मेरे सामने  वाली खिड़की में इक चाँद  का टुकड़ा  रहता है  )

 

अब हम एम.एस-सी. में चुके थे,

अलग अलग विषयों में,

अलग अलग विभागों में, 

पर इश्क़ की मासूमियत अब भी वहीं ठहरी थी

पहली मुलाक़ात की सीढ़ियों पर,

हर रोज़ नए अहसास की खामोश मुस्कान में।

 

तेरे क्लास का समय

अब मेरे दिल की घड़ी में टिकने लगा था,

जैसे हर मिनट के बाद मेरी नज़रें

तेरे बाहर आने की आस में और बेचैन होती जातीं।

 

जैसे ही तुम क्लास से बाहर निकलती,

मेरा दिल हौले से मुस्कुराने लगता,

और मैं...

अपने पहले फ़्लोर की लैब की खिड़की तक चला आता

बस तुझे जाते हुए देखने के लिए।

 

तेरे कदमों की रफ्तार,

तेरी पायल की खनक,

तेरे बालों का झूले जैसा हिलना

सब कुछ एक गीत जैसा था,

जिसे मैं हर रोज़ अपनी आँखों से सुनता था।

 

कई बार मैं अपनी क्लास छोड़कर

बस तुझे घर छोड़ने निकल पड़ता,

वो कुछ कदम का सफ़र

मेरी ज़िंदगी का सबसे हसीन कारवाँ बन जाता।

 

हम चलते साथ-साथ,

कभी तेज़, कभी धीरे

बातों के झूले में झूलते हुए,

हँसते, गुनगुनाते

जैसे हर मोड़, हर पेड़, हर पत्थर भी हमारी मोहब्बत की गवाही देता।

 

तेरे होंठों पर जब हँसी ठिठकती,

तो लगता, मौसम बहार सा हो गया है।

और जब तू मेरी बातों से शरमा जाती,

तो बस इधर-उधर देखने लगती,

जैसे निगाहें खुद को बचाने की कोशिश में 

कहीं खो जातीं

और मैं

तेरे इस झेंपने में खुद को जीतता हुआ महसूस करता।

 

उन चंद पलों में

ना कोई किताब होती थी,

ना कोई विषय,

बस एक ही पाठ था

इश्क़ का, जो हम दोनों ने बिना बोले रट लिया था।

 

“पहली नज़र का जादू”भाग 19  

(जब मोहब्बत रेडियो पर गूंजने लगी)

 

फिर वो वक़्त आया

जब तुझे चुना गया रेडियो की उस दुनिया में,

जहाँ आवाज़ें पहचान बनती हैं,

और लफ़्ज़ों में मोहब्बत उतरती है।

 

अब तू हर शाम

एक तय वक़्त पर रेडियो पर आती थी,

गीतों की महफ़िल सजाती थी

तेरी आवाज़ जैसे गुलाब की पंखुड़ियों पर रखी 

किसी सुबह की ओस।

 

और मैं 

ठीक वक़्त पर रेडियो के पास बैठ जाता,

तेरी आवाज़ सुनते ही

मेरे होंठों पर एक ख़ामोश मुस्कान खिल जाती

जैसे तू मेरे सामने हो, और कह रही हो — “तुम सुन रहे हो ?”

 

तेरे "श्रोताओं" के लिए वो सिर्फ़ एक आवाज़ होती,

पर मेरे लिए

एक स्पर्श, एक इकरार, एक रूह की पुकार थी।

 

कई बार

तेरी आवाज़ सुनते-सुनते

मेरा दिल बेक़ाबू हो जाता

तुझसे मिलने की तड़प इतनी बढ़ जाती

कि मैं अपनी साइकिल उठाता,

और मीलों दूररेडियो स्टेशन की ओर निकल पड़ता।

 

सड़कें धड़कती थीं मेरे साथ,

हवा भी जैसे मेरा इंतज़ार करती थी

कि मैं तुझ तक पहुँच जाऊँ,

तेरे वो शब्द जो रेडियो पे कहे गए

उनका जवाब तेरी आँखों में दे सकूँ।

 

तू गानों के बीच कभी बाहर आती,

कुछ पल मुझे देती,

मेरे धड़कते चेहरे को देखती,

और फिर चुपचाप लौट जाती स्टूडियो में

और 

तुरंत कोई रूमानी गीत बजा देती

जिसका हर बोल, हर धुन

बस मुझसे कहता,

"मैं समझ गई हूँ... मैं भी तुमसे उतना ही प्यार करती हूँ।"

 

ये सिलसिला यूँ ही चलता रहा,

तेरी आवाज़, मेरा इंतज़ार, मेरी साइकिल की बेचैनी,

और हमारे बीच बजते वो प्रेमगीत

जो दुनिया सुनती थी,

पर असल में, सिर्फ़ मैं समझता था।

 

“पहली नज़र का जादू”भाग 20  

(जब रूसी भाषा में भी मोहब्बत थी)

 

फिर हमने कॉलेज में

रूसी भाषा सीखने का इरादा किया

शायद किसी नई ज़ुबान में

अपनी मोहब्बत के नए अल्फ़ाज़ ढूँढने का मन था।

 

क्लास शुरू हुई,

अलेक्जेंडर और तान्या आए

एक प्यारा-सा रूसी दंपत्ति,

जो अपनी भाषा से ज़्यादा,

शायद हमारी मौन भाषा समझते थे।

 

हम अब इस कक्षा में भी

हम उसी तरह साथ होते

हर नई रूसी शब्दावली में

तेरी मुस्कान, मेरी नज़रें उलझी होतीं।

 

तू तान्या से बहुत जल्दी जुड़ गई

वो तेरे भीतर की बेचैनी को पढ़ने लगी,

उसकी मुस्कान में

कभी मज़ाक, कभी गंभीरता होती

पर उसकी आँखों में

तेरे दिल की सच्चाई की गहराई थी।

 

और फिर एक दिन...

उसने तुझसे कह दिया

"Ты влюблена в него, да?"  (Ty vlyublena v nego, da?)

(तुम उससे मोहब्बत करती हो , है ?)

तुम चौंक गई,

पर नज़रें झुका कर तुमने 

उसको अपनी चाहत बता दी 

बग़ैर ये जाने कि 

क्या मैं भी तुमसे प्यार करता हूँ 


और मैं इन बातों से बेख़बर,

हर क्लास में तेरे आस-पास

ख़ुद को खोया करता था।

तेरी हँसी, तेरे लहजे में

हर शब्द मेरे लिए प्रेम का पाठ बन जाता था।

 

मैं नहीं जानता था

कि तान्या ने वो बात तुझसे कह दी थी।

मैं तो बस तेरे प्यार में

ख़ुद को रोज़ मिटा रहा था

जैसे किसी इबादत में

बदन नहीं, रूह मिटती है।

 

उस भाषा की कक्षा में

मैंनेЯ тебя люблю(YA tebya lyublyu - I love you)

पहली बार जाना था,

पर उसका अर्थ

तो मैं तेरी खामोश आँखों से पहले ही सीख चुका था।

 

“पहली नज़र का जादू”भाग 21  

(जब मोहब्बत की आवाज़ नहीं निकली)

 

वो दिन था फाइनल परीक्षा का,

दिल में थोड़ा डर, थोड़ी उम्मीदें,

और ढेर सारा प्यार

जो अब भी तेरी आँखों में हौले से बसता था।

 

तू अपने पिता जी के साथ

छोटे रास्ते से कॉलेज की ओर रही थी

सफेद सलवार, नीली चूड़ियाँ,

और माथे पर परीक्षा की हल्की सी शिकन।

 

और तभी

मैं सामने से गया,

बिलकुल अचानक,

बिलकुल उसी तरह जैसे मोहब्बत अक्सर सामने खड़ी होती है

बिना किसी चेतावनी के।

 

तू मुझे देखकर थम गई

या कहें, खो गई उस एक क्षण में।

 

तेरी आँखों में जो लहर दौड़ी,

वो मेरी रूह तक जा पहुँची।

और फिर,

घबराहट में तेरे हाथ से

एडमिट कार्ड गिरा,

पेंसिल बॉक्स गिरा,

और वो रुमाल

जिसे कभी तूने सीने से लगाकर रखा था

वो भी फिसल गया।

 

मैं कुछ नहीं कर सका

बस सख़्त, शांत, अधूरा सा खड़ा रह गया।

क्योंकि तेरे साथ तेरे पिता जी थे

और मोहब्बत को उस वक्त

संस्कारों की चुप्पी ओढ़नी पड़ी थी।

 

तेरे चेहरे की रंगत

एक पल में सफ़ेद हो गई

जैसे शब्द गुम हो गए हों होंठों से,

जैसे लाज ने पूरी दुनिया को थाम लिया हो।

 

मैं देखता रहा

तेरे काँपते हाथों को वो चीज़ें समेटते हुए,

तेरी झुकी पलकों को

जो किसी आँधी से ज़्यादा कह रही थीं।

 

उस पूरे दिन

मैं बेचैन रहा

ना पढ़ाई में मन लगा,

ना पेपर में दिल।

 

बस एक ही सवाल कचोटता रहा

कैसी हो तुम? संभली या नहीं ?”

मगर पूछ सका

क्योंकि उस दिन इश्क़ की आवाज़ नहीं निकली थी।

 

“पहली नज़र का जादू”भाग 22  

(डांट में भी था प्यार का डर)

 

जब इश्क़ परवान चढ़ता है,
तो हर बात
बस बात नहीं रहती —
वो एक दुआ बन जाती है,
एक डर भी,
कि कहीं ये सब
खो न जाए।

हर हँसी के पीछे
साया होता है —
तेरी सलामती की फ़िक्र का,
तेरे सिर्फ़ मेरे हो जाने की प्यास का।

जब कोई और तुझसे
यूँ ही दो बोल बोल ले,
या तू किसी और की बात पर
हल्का सा मुस्कुरा दे —
तो मेरे भीतर इक ज़लज़ला सा उठने लगता था 
जैसे कोई दरार
धीरे से उतरती जाती है
भरोसे की ज़मीन पर।  

 याद है मुझे वो दिन —

प्रैक्टिकल क्लास चल रहा था,
तू मेरे पास ही बैठी थी,
तभी किसी लड़के ने तुझसे
तेरी कॉपी माँग ली।

एक मामूली सी बात थी —
पर मेरे दिल में
एक बेचैन तूफ़ान उठ खड़ा हुआ।

बाहर तू खड़ी थी —

लैब के दरवाज़े पर,
पल-पल बेसबर देखती 
कि कब मैं आऊँ,
कब तू मेरा हाथ थामे
मुझे मनाये और मुझसे कहे,
“क्यूँ परेशान होते हो, कुछ भी तो नहीं हुआ है।”

पर उस दिन 
मेरे भीतर का बवंडर
मुझे निगल गया।

मैं निकला —
और तुझे देखे बिना
वहां से चला गया,
जैसे तेरी मुस्कान भी 
मुझे चिढ़ाने लगी हो।

कुछ कदम बाद

जब पलटा —
तू वहीं खड़ी थी,
तेरी आँखें सवालों से भीगी,
तेरा माथा पसीने से चमक रहा था —
पर मेरे दिल के अंदर 
जैसे कोई दरवाज़ा
भीतर से बंद हो चुका था                                                                                                                               
मेरा दिल नहीं पसीजा

फिर तू पास आई,

धीरे से मेरी उंगलियों को
अपनी उँगलियों से छुआ —
वो छुअन…
जिसमें माफ़ी नहीं,
बस मोहब्बत थी।

पर मैंने
तेरा हाथ झटक दिया —
जैसे अपने ही दिल से
मुंह मोड़ लिया हो।


मैं चुप रहा उस पल —

पर जब रात को खत लिखा,

तो मोहब्बत के सारे लफ्ज़

गायब हो गए थे। 

उसमें बस 
आग थी,
ग़ुस्सा था,
ख़ुद से भी,
तुझसे भी।

वो खत…
प्यार का नहीं था,

बस डांट ही डांट थी उस खत में —

शब्द नहींचेतावनियाँ थीं।

एक डर की चीख थी —
"लोगों से दूर रहो",
"किसी पे यक़ीन मत करो",
"मुझे खो दोगी तो
मैं खुद को भी नहीं संभाल पाऊँगा…"

और आख़िर में —
'तुम्हारा मैं' भी नहीं लिख पाया, अपने गुस्से की आग में।

तूने वो हर लफ़्ज़

बग़ैर शिकायत पढ़ा था —
तेरी आँखों में आँसू नहीं थे,
बस एक गहराई थी,
जो कह रही थी —
“मुझे तेरा प्यार समझ में आता है,
तेरा डर भी, तेरी डांट भी।”

तेरी मासूम आँखों में

कोई शिकायत नहीं होती थी,

बस वो चाहत होती थी

जो कहती थी —

"समझती हूँतेरा हर डांट भी — सिर्फ़ प्यार है।"

तू जानती थी —
मैं गुस्से में भी
तुझे खोने से डरता हूँ।
मैं चाहता हूँ —
तेरा चेहरा,
तेरी हँसी,
तेरी मासूमियत —
सब सिर्फ़ मेरा रहे,
मेरे प्यार में महफूज़।

मुझे तेरा सिर्फ़ साथ नहीं चाहिए था

मुझे तेरी सलामती चाहिए थी,

तेरी हँसी, तेरी मासूमियत,

तेरा वही चेहराजो बस मेरे लिए हो।

 इश्क़ था ना  

इसलिए ज़्यादा चाहता था।
जब कोई परछाईं
तेरे पास से गुज़रती थी,
तो लगता था —
वो तुझे मुझसे छीन ले जाएगी।

दिल तुझमें डूबा था —
और डर उसमें डूबे रहने का भी था।

 

“पहली नज़र का जादू” — भाग 23   

"मैं जानती थी..."
(उसकी खामोश मोहब्बत की ओर से)

तू गुस्से में था —
पर मैं जानती थी,
तेरे लफ़्ज़
तेरी मोहब्बत से ही निकले थे।

हर डांट के पीछे
तेरी हिफ़ाज़त की परतें थीं,
हर शक में
तेरा खुद को खो देने का डर था।

जब तू बिना देखे
मुझसे गुज़र गया,
तो मेरी आँखें
तेरे कदमों की आवाज़ सुनती रहीं।

मैंने चाहा
एक बार तू ठहर जाए,
एक बार पलटे —
पर जब तू गया,
तो मैं बस खड़ी रही —
तेरे प्यार की परछाईं ओढ़े हुए।

तेरे खत में
प्यार के शब्द नहीं थे,
पर मुझे पता था —
उस हर चेतावनी में
तेरी तड़प छुपी थी,
तेरा “तुम्हारा मैं” जो छूट गया,
वो ही तो सबसे गहरी पुकार थी।

तू मेरी उँगली झटक कर चला गया था,
पर मुझे याद है —
तेरे हाथ का वो स्पर्श
थोड़ी देर ठहरा भी था,
जैसे तेरा मन
अब भी मेरा नाम ले रहा हो
बिना कुछ कहे।

मैंने तुझसे कुछ नहीं पूछा —
क्योंकि मुझे तेरा हर डर
तेरे दिल से होकर गुज़रता महसूस होता था।
मैंने तेरे मौन को
अपने सीने से लगा लिया था।

मुझे शिकायत नहीं थी —
क्योंकि मैंने तुझे
महज़ साथ के लिए नहीं चाहा था,
मैंने तुझे
तेरे हर टूटे हिस्से के साथ चाहा था।

मुझे तेरा साथ चाहिए,
पर उससे भी ज़्यादा —
तेरा सुकून चाहिए,
तेरी मुस्कान चाहिए,
वो तू चाहिए
जो अपने सारे डर भी मुझसे बाँट सके।

तू खुद में उलझा रहा,
और मैं तुझे सुलझता हुआ देख 
प्यार करती रही।
तेरे गुस्से में
तेरे बचपन को देखा मैंने,
तेरे खौफ में
तेरा भरोसा बनने की कोशिश की।

मोहब्बत में इंतज़ार होता है,
तपस्या होती है —
मैं तेरे हर कदम के साथ
तूफ़ानों में भी चली हूँ,
तेरे सन्नाटों में भी
तेरी धड़कनें सुनी हैं।

मैं तुझसे कुछ नहीं मांगती —
बस इतना चाहती हूँ
कि एक दिन
तू खुद को मुझमें
बेख़ौफ़ महसूस कर सके।

क्योंकि
तेरा डर भी
मेरा प्यार है।


“पहली नज़र का जादू” — भाग 24  

(तुमने पुकारा और हम चले आये)


शाम का वक्त

तुमने लेटर में लिखा था

आज मिलने आना

मैं तेज़ कदमों से चलती उस जगह पर पहुंची

जहां तुम बेसब्री से मेरा इंतेज़ार कर रहे थे

कितनी देर लगा दी आने में ? 

अभी तक नाराज़ हो?

मैं कुछ कहती उसके पहले 

तुमने मुझे अपनी बाहों में भर लिया

मैने तुम्हारी आंखों में खुद को देखा

कितनी सुंदर लगती थी मैं तुम्हारी आंखों में 

तुम मुझे एक टक देखे जा रहे थे 

तुमने कहा आज तुम्हारी बहुत याद आ रही थी 

तुम बस मेरे पास रहो

मुझे भी तुम्हारी बहुत याद आ रही थी 

मैं तुमसे कभी भी नाराज़ नहीं हो सकती

मैं तुम में और सिमट गई

दोनों चुप 

बस एक दूसरे में खोए हुए

वो पल ज़िंदगी का सबसे खूबसूरत 

पल था

तुम्हारा वो प्यारा स्पर्श

मैं तो अपना होश खो बैठी थी

न जाने क्या बोले जा रही थी बेसुध

मैं तुमसे दूर नहीं रह सकती.....

मुझे ऐसे ही थामे रहना.....

तुमने मुझे अपने में छुपा लिया था

मैं दुआ कर रही थी

ये पल कभी ना बीते

मैं अपनी पूरी ज़िंदगी तुझ में

यूं ही जी लूं....


“पहली नज़र का जादू”भाग 25  

(जब तुम मेरी बाँहों में रो पड़ी)

 

अब तक

तू हर बार मेरी आँखों में हँसी भर देती थी,

हर शिकायत के बाद

तेरे होंठों पर समझौते की हल्की-सी मुस्कान होती थी।

 

तू मुझे मनाती थी

जैसे मैं बच्चा हूँ

और तुझमें दुनिया की सबसे नर्म माँ बसती है।

 

मगर उस दिन

कुछ बदल गया था।

 

तेरे चेहरे पर कोई झलक नहीं थी,

तेरी आँखों में वो चमक नहीं थी

जो हर रोज़ मुझे ज़िंदा रखती थी।

 

तू बस चुप थी।

और मेरी बाँहों में समा गई

बिलकुल वैसे, जैसे बारिश

सूखी ज़मीन को पहली बार छूती है।

 

और फिर...

तू रो पड़ी।

 

धीरे-धीरे,

बेआवाज़,

मगर भीतर से तूफानी।

 

तेरे आँसू मेरी कमीज़ में समा रहे थे,

और मैं...

कुछ समझ नहीं पा रहा था कि

कौन-सा शब्द अब इस सन्नाटे को सहला पाएगा।

 

तेरी उंगलियाँ मेरे सीने को कस के थामे थीं,

जैसे तू किसी डर से भागी हो

और अब एकमात्र पनाह मेरी धड़कन में मिल रही हो।

 

मैंने तुझसे कुछ नहीं पूछा

ना वजह, ना कहानी,

क्योंकि उस दिन

तेरे आँसू ही तेरे रूह की परतें खोल रहे थे।

 

मैं बस तुझे सीने से लगाए रहा,

तेरे आँसुओं को माथे पे चूमा,

और इतना कहा

"अब कुछ भी हो, मैं हूँ। बस हूँ। तेरा। हमेशा।"

 

उस दिन पहली बार

मैंने तुझमें एक लड़की नहीं,

एक टूटी हुई रूह को थामा था

और खुद को

पहली बार पूरी तरह तेरा बना पाया था।

 

“पहली नज़र का जादू”भाग 26  

(जब मैं चला गयाकहे बिना)

 

अब हम

एम.एस.सी. की फाइनल परीक्षा में खो गए थे,

किताबों के पन्नों में,

आख़िरी प्रैक्टिकल्स की दौड़ में,

और उस ख़ामोशी में

जिसे हम दोनों बख़ूबी समझते थे।

 

ना शिकायत,

ना उलझन,

ना ही ज़रूरत थी अब रोज़ कुछ कहने की।

 

बस

एक सर्द-सी परत बिछ गई थी हमारे बीच

जैसे सर्दी की धूप,

जो छू तो लेती है, पर गर्म नहीं करती।

 

परीक्षाएं खत्म हुईं।

 

और वो आख़िरी मुलाक़ात आई

बिलकुल सामान्य सी,

बिलकुल शांत

जैसे कुछ बदलेगा ही नहीं।

 

पर मैं जानता था

सब बदलने वाला है।

 

मैं जा रहा था,

दूर किसी और शहर, किसी और मंज़िल की ओर।

प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी थी,

या शायद

ख़ुद को तुमसे दूर करने का बहाना।

 

पर मैंने तुझसे कुछ नहीं कहा।

ना अलविदा,

ना कोई इकरार,

ना ही यह कि शायद मैं कभी लौटूं।

 

क्यों?

क्योंकि शायद मुझे डर था

तेरी आँखों के आँसू से,

तेरे चेहरे की टूटन से,

और अपने दिल की हार से।

 

और फिर

तू समझती रही कि

मैं किसी बदगुमानी में तुमसे दूर हो गया।

कि शायद मैंने कुछ ग़लत समझ लिया,

या शायद तुम्हारे किसी अंदाज़ से खफा हो गया।

 

पर सच तो ये था

मैं तुझसे नहीं,

ख़ुद से भाग गया था।

 

और उस भागते वक़्त में

मैं सिर्फ़ एक बात का मुजरिम बन गया

कि मैं तुझे बता सका कि

तेरे बिना जाने का दर्द

तुझे खोने के डर से कम नहीं था।

 

 “पहली नज़र का जादू”भाग 27   

(बरसों बाद की दस्तक)

 

वो मोहब्बत जो किसी अलविदा के बिना छूट गई थी,

वो मोहब्बत जो खतों में बंद होकर

किसी संदूक की नींद बन गई थी

फिर से जाग उठी।

 

ना कोई तारीख़ तय थी,

ना मौसम ने इशारा किया,

बस एक दस्तक आई

बरसों बाद।

बरसों की चुप्पी टूट गई,

जब वो एक दस्तक आई —

ना किसी दरवाज़े पर

ना किसी फोन कॉल पर,

बल्कि दिल की सबसे भीतरी दीवार पर।

 

जिस मोहब्बत ने एक अलविदा भी नहीं कहा था,

अब वो लौट आई —

एक इकरार बन कर,

एक वादा बन कर,

एक जीवन बन कर।

 

जैसे किसी पुराने गीत के बोल में,

या किसी जान-पहचान की जुबां से

तेरा नाम सुन लेने पर

जैसे पहले दिल धड़का करता था 

दिल फिर से वैसे ही धड़क उठा

 

और हम 

जो कभी बिना कहे बिछड़ गए थे,

अब फिर से एक-दूसरे की तरफ़

चुपचाप लौट चले।

 

तू भी वैसी ही थी

थोड़ी और शांत, थोड़ी और नर्म,

पर तेरी आँखों में वही जानी-पहचानी गर्मी थी

जिसने पहली बार मुझे जिंदा किया था।

 

इस बार

ना मैंने कुछ छुपाया,

ना तू कुछ अनकहा रख पाई।

हमने एक-दूसरे को

पूरा-पूरा पढ़ा

हर अधूरा खत, हर अनकहा वादा।

 

और फिर

तय कर लिया

अब कोई अलविदा नहीं होगा।

अब हम कभी भी बिछड़ने के लिए नहीं मिलेंगे

बल्कि हमेशा साथ रहने के लिए।

 

तेरा हाथ थामा,  

तो वक़्त की रेत रुक गई

और हमारी कहानी

एक प्रेम-काव्य बन गई

जिसका नाम आज भी

कई दिलों की धड़कनों में गूंजता है


“पहली नज़र का जादू” — भाग 28  (अंतिम)

(फिर एक बाररूहों का पुनर्मिलन)

वो दिन आया भी —

जब बिना कुछ बताये,

बिना किसी तय वक़्त या बुलावे के,

बस जैसे कायनात ने

फिर से वही धड़कनें जगाई हों,

फिर से वही लम्हा लौटाया हो —

जिसे हमने सोचा था

कि फिर नहीं लौटेगा


तुम सामने थीं —

उतनी ही खामोश, उतनी ही सुकून से भरी,

जैसे वक़्त की लहरों ने

तुम्हें मेरी यादों से निकाल कर

फिर से मेरी साँसों में रख दिया हो।


न तुमने कुछ कहा,

न मैंने।

पर वो नज़रें —

वही थीं,

जिनमें वर्षों पहले

मैंने अपना आशियाना देखा था।


हम चलने लगे —

बिना पूछे, बिना बताए —

क़दमों की ताल

जैसे फिर से वही पुराना राग गा रही थी

और हवा

उसी पुरानी ख़ुशबू से भीगी हुई।


इस बार ना वो जगहें नहीं थी

जहाँ हम मिलते थे

ना वो रास्ते

जिन पर कभी हम साथ चले थे 

मगर वो ख़ामोशी —

वो ख़ामोशी अब भी वैसी ही थी

जिसमें हम दोनों

रूह से रूह तक बहते चले जा रहे थे।


तुम्हारा हाथ

फिर से मेरे हाथों में था —

थोड़ा थमा हुआ,

थोड़ा काँपता,

मगर अपनी पहचान लिए

कहीं कोई बन्धन नहीं था —

ना समय का,

ना समाज का,

ना लफ़्ज़ों का।

बस दो रूहें थीं

जिन्होंने वक़्त की इन दूरियों को

पल भर में भुला दी थी।


तुम्हारे माथे पे  —

बस थोड़ी सी थकान थी,

पर अब भी

वहाँ प्यार की वही जानी-पहचानी 

रौशनी चमक रही थी।

तुमने मेरी आँखों में झाँका —

वहाँ अब भी

उस पहली रात की नमी बची हुई थी

जब हमारी मोहब्बत ने पहले ख्वाब

हमारी नींदों को तोहफ़े में दिए थे


और तब —

जब उस मोड़ पर,

जहाँ आकाश हल्का-सा नीला हो चला था,

जहाँ शाम की चुप्पी फिर से

किसी अनकहे सिन्दूरी गीत को जन्म दे रही थी —

हमने एक बार फिर

एक-दूसरे की रूहों को छुआ।


बिना कोई कसम खाये

बिना कोई सवाल पूछे,

हम जान गए —

कि इश्क़ कभी बीतता नहीं।

वो तो बस ठहर जाता है,


कभी किसी पुरानी गली के मोड़ पर,

कभी किसी खामोश दुपहरी में,

या

कभी सालों बाद किसी अचानक सी मुलाक़ात में —

जब रूहें फिर से कह सकें

वो सब कुछ

जो लफ़्ज़ कभी नहीं कह पाए।

उस दिन

हमने फिर से वो पहली रात जी ली थी —


पर इस बार

हम जान चुके थे

कि जो ख़ामोशी में कहा गया हो,

वो युगों युगों तक गूंजता है।

और इस बार —

हमने जाने से पहले

कुछ भी नहीं कहा।

बस

थोड़ी और देर

एक-दूसरे की साँसों में ठहर गए।


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कुछ प्यार

वक़्त से नहीं डरते।

कुछ रिश्ते

अल्फ़ाज़ की ज़रूरत नहीं रखते।

और कुछ कहानियाँ —

अधूरी होते हुए भी

मुकम्मल होती हैं…

जैसे हमारी कहानी।