Thursday 28 June 2012

द्रौपदी चीर हरण - नियति की भिक्षा

द्रौपदी ने कहा अर्जुन से 

हे! श्रेष्ठ धनुर्धर

तुम लाये थे मुझको वर कर

कहाँ गयी थी तुम्हारी पौरुषता

जब दांव पर थी मेरी अस्मिता

कहने को तुम बड़े धनुर्धर हो 

क्यों नहीं रोका फिर इस अनर्थ को 

जो भी हुआ उसमें क्यूँ मैं भागीदार बनी

मैं पांचाली भरी सभा में शर्मसार हुयी 

है तुम्हारे पास मेरे प्रश्नों का उत्तर 

--------------अर्जुन ने कहा 

तुम्हें कैसे समझाऊँ पांचाली

भगवत नियति से हम बंधे थे 

फिर भी जुए में तुम्हें हार 

हम सबके गले रुंधे थे 

पितामह में हमारी आस्था थी 

पर विवशता की पराकाष्ठा थी

भुजाएं हमारी फड़क रही थी 

दिल में आग धधक रही थी

ऐसा नहीं कि कुछ कर नहीं सकते थे

विवशतः सब उस नियति से बंधे थे 

जिस से शायद कोई नहीं बचा था

क्या विदुर क्या भीष्म पितामह

सब कुछ ईश्वर का रचा था

केशव ने वस्त्र बढ़ाकर 

कैसे तुम्हें सम्हाला था 

अगर तुम निर्वस्त्र होती तो

प्रलय से कम नहीं आता

और महाभारत के युद्ध से पहले

दुर्योधन दुश्शासन मारा जाता

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