Friday 29 June 2012

तुम्हारा दर्द





जिस दर्द का ज़िक्र तुम अक्सर कविताओं में करती हो 

कल उस दर्द से मेरी मुलाक़ात हुयी 

पर मैं उसको कुछ कह न पाया 

तुमने अपने सीने में उसे बांध जो रखा था 

कभी उसे अपनी क़ैद से मुक्त करो 

तो उसको मैं बताऊँ 

कि ए दर्द तू कहाँ आ फंसा है 

ये तो मेरी कविताओं में बसने वाली तितली है 

तू क्यूँ खामखाह उसके कब्ज़े में कसा है 

जा जाकर कोई ऐसा ढूंढ ले जिसे दर्द की चाहत हो 

जो तुझको चाहे 

तेरी इबादत करे 

मेरी तितली ने तुझको कभी नहीं चाहा

खामख्वाह इस को तू अब परेशां मत कर 

लौट कर तू उसके सीने में मत जा 

कोई और ना मिले तो मेरे पास आ 

मैं दूंगा पनाह तुझको 

पर मेरी तितली को अब तू कभी परेशां मत कर 

इसलिए कहता हूँ तुमसे 

तुमने अपने सीने में जो दर्द छुपा रखा है 

कभी उसे अपनी क़ैद से मुक्त करो 



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