जिस दर्द का ज़िक्र तुम अक्सर कविताओं में करती हो
कल उस दर्द से मेरी मुलाक़ात हुयी
पर मैं उसको कुछ कह न पाया
तुमने अपने सीने में उसे बांध जो रखा था
कभी उसे अपनी क़ैद से मुक्त करो
तो उसको मैं बताऊँ
कि ए दर्द तू कहाँ आ फंसा है
ये तो मेरी कविताओं में बसने वाली तितली है
तू क्यूँ खामखाह उसके कब्ज़े में कसा है
जा जाकर कोई ऐसा ढूंढ ले जिसे दर्द की चाहत हो
जो तुझको चाहे
तेरी इबादत करे
मेरी तितली ने तुझको कभी नहीं चाहा
खामख्वाह इस को तू अब परेशां मत कर
लौट कर तू उसके सीने में मत जा
कोई और ना मिले तो मेरे पास आ
मैं दूंगा पनाह तुझको
पर मेरी तितली को अब तू कभी परेशां मत कर
इसलिए कहता हूँ तुमसे
तुमने अपने सीने में जो दर्द छुपा रखा है
कभी उसे अपनी क़ैद से मुक्त करो
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