Thursday 28 June 2012

हरी हरी वसुंधरा

सहमी सहमी सारी धरती 
सहमा सा आसमान है 
सहमी सहमी सारी सृष्टि 
सहमा हर इंसान है

धरा हरदम हिली अपनी धूरी से
करने उस सभ्यता का नाश
बोझ बन गयी इस धरा पर
जिस सभ्यता की अनबुझ प्यास

उस सभ्यता की प्यास ने
इस धरती को निचोड़ा है
अपनी भूख और हवस में हमने
शायद ही कुछ भी छोड़ा है

जैव विविधता और पर्यावरण के
हर संतुलन को तोड़ा है
ग्लोबल वार्मिंग जैसी विभीषिका के
दर पर लाकर हमें छोड़ा है

ईश्वर का वरदान हमें था
नभमंडल पर ओज़ोन परत
हमें बचाता विकिरणों से
हमने उसे भी तोड़ा है

विकसित कहलाने की होड़ में हमने
प्रकृति को मचोडा है
खेत खलिहान बाग़ बगीचे
वन उपवन किसी को नहीं छोड़ा है

अब ऐसे हालात हैं जिसमें
न कोई राह न जरिया है
ताल तलैया नदी नाले
झरना झील ना दरिया है

कैसा होगा भविष्य हमारा
अब इस भय से डरना होगा
अगर इस सभ्यता को बचाना है
तो प्रकृति का आदर करना होगा 




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