Thursday 18 October 2012

गुमनामियों के अँधेरे

जी चाहता है

गुमनामियों के अँधेरे में

खो जाऊं कहीं

इस नाम से

अब दर्द होने लगा है

ज़िन्दगी के हर मोड़ पर

खड़े हैं

कितने जाने पहचाने चेहरे

तकते हुए मुझे

अपनी उम्मीदों की नज़र से

उनकी उम्मीदों से

मेरा मन

अब सर्द होने लगा है

जब देखता हूँ

हर गुज़रते हुए

लम्हों में

सबकी बढ़ती हुई

चाहतों को

मुझसे

मेरी चाहत मांगती हुई

मेरी चाहत

घबरा जाती है

इन चाहती हुई

चाहतों से

और मेरी चाहत का रंग

अब ज़र्द होने लगा है

गुमनामियों के अँधेरे में

खोकर

शायद मैं खुद को

फिर से पा सकूं

खो गया था

मेरा मैं जो

मेरे नाम के शोर में

उसको गुमनाम बना सकूं

कि फिर ना कोई

उम्मीदों की नज़र से

ढूंढ पाए मुझे

इन गुमनामियों के अँधेरे में

मुझे

मेरे नाम से

जोड़ने के लिए

या फिर कोई

चाहत अपनी लेकर

ना हो परेशां

मेरी चाहतों को

अपनी चाहतों से

जोड़ने के लिए

ये गुमनामी के अँधेरे अच्छे हैं

मुझे मेरी हालातों पे

छोड़ने के लिए

और शायद सबकी

उम्मीदों और चाहतों से नाता

तोड़ने के लिए

















2 comments:

  1. कोशिश कर लीजिये...
    जो गुमनामी के अँधेरे भी रास न आये तो क्या कीजियेगा.....
    फिर चाहतें ढूँढने से भी नहीं मिलीं तो क्या कीजियेगा .........

    खूबसूरत रचना के लिए बधाई

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  2. मुश्किल से तो आन हुआ, कैसे टिप्पणी रहने दे जी। अद्भुत..!!

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